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________________ ३२१ -८६० ] उपासकाध्ययन यः स्वात्स ब्राह्मणः सत्यं न तु जातिमदान्धलः ॥८८६॥ सा जातिः परलोकाय यस्याः सदधर्मसंभवः।। न हि सस्याय जायत शुद्धा भूर्तीजवर्जिता ॥८८७॥ स शैवो यः शिवशात्मा स बौद्धो योऽन्तरात्मभृत् । स सांख्यो यः प्रसंख्यावान्स द्विजो यो न जन्मवान् ॥८८८॥ ज्ञानहीनो दुराचारो निर्दयो लोलुपाशयः। दानयोग्यः कथं स स्याद्यश्चाक्षानुमतक्रियः ॥८॥ अनुमान्या संमुद्देश्या त्रिशुद्धा भ्रामरी तथा । भिक्षा चतुर्विधा शे या यतिद्वयसमाश्रया ॥८६०॥ इत्युपासकाध्ययने यतिनामनिर्वचनश्चतुश्चत्वारिंशः कल्पः । काम, क्रोध, मोह आदि तथा जमीन-जायदाद, धन आदि अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहसे रहित है वही सच्चा ब्राह्मण है । जो जातिके मदसे अन्धा है, अपनेको सबसे ऊँचा और दूसरोंको नीच समझता है वह ब्राह्मण नहीं है ॥ ८८६ ॥ वही जाति परलोकके लिए उपयोगी है जिससे सच्चे धर्मका जन्म होता है, जमीन शुद्ध भी हो किन्तु यदि उसमें बीज न डाला गया हो तो अनाज पैदा नहीं हो सकता। अर्थात् ब्राह्मण जाति शुद्ध भी हो किन्तु उसमें यदि समीचीन धर्मके पालनकी परिपाटी न हो तो वह शुद्ध जाति भी व्यर्थ है ॥ ८८७ ॥ _जो शिव अर्थात् अपने कल्याणरूप मुक्तिको जानता है वही सच्चा शैव-शिवका अनुयायी है । जो अपनी अन्तरात्माका पोषक है वही वास्तवमें बौद्ध है। जो आत्मध्यानी है वही सांख्य है और जिसे फिर संसारमें जन्म नहीं लेना है वही द्विज अर्थात् ब्राह्मण है ॥ ८८८ ॥ जो अज्ञानी है, दुराचारी है, निर्दय है, विषयोंका लोलुपी है तथा इन्द्रियोंका दास है वह दानका पात्र कैसे हो सकता है ? अर्थात् ऐसे आदमीको कभी भी दान नहीं देना चाहिए ॥ ८८९ ॥ भिक्षाके मेद देशविरत और सर्वविरतकी अपेक्षासे भिक्षा चार प्रकारकी होती है- अनुमान्या, समुद्देश्या, त्रिशुद्धा और भ्रामरी ॥ ८९० ॥ - भावार्थ-मुनिसम्बन्धी भिक्षाके लिए तो भ्रामरी शब्द शास्त्रोंमें अति प्रसिद्ध है। किन्तु श्रावकसम्बन्धी भिक्षाके इन भेदोंका उल्लेख अन्यत्र हमारे देखनेमें नहीं आया। टिप्पणकारने अनुमान्या भिक्षाको दस प्रतिमापर्यन्त बतलाया है और आमन्त्रणपूर्वक भोजनको समुद्देश्य बतलाते हुए छठी प्रतिमापर्यन्त बतलाया है । छठी प्रतिमापर्यन्त गृही संज्ञा है । छठीके पश्चात् नवीं प्रतिमा पर्यन्त ब्रह्मचारी संज्ञा है और भिक्षुक संज्ञा केवल अन्तिम दो प्रतिमाधारियोंकी है । दसवीं प्रतिमाका धारी घर छोड़कर बाहर रहने लगता है और आमन्त्रणदाताके घर भोजन करता है। अतः १. न जातु अ०, ज०। २. पञ्चेन्द्रियवशः । ३. दशप्रतिमापर्यन्तम् । ४. आमन्त्रणपविका षट्प्रतिमापर्यन्तम् । ४१
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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