SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 438
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१६ [ कल्प ४४, श्लो० ८५७ सोमदेव विरचित ततद्गुणप्रधानत्वाद्यतयोऽनेकधा स्मृताः । निरुक्ति युक्तितस्तेषां वदतो मन्निबोधत ॥ ८५७|| जित्वेन्द्रियाणि सर्वाणि यो वेत्त्यात्मानमात्मना । गृहस्थो वानप्रस्थो वा स जितेन्द्रिय उच्यते ॥ ८५८ || मानमायामदामर्षक्षपणात्क्षपणः स्मृतः । यो न श्रान्तो भवेद्धान्तेस्तं विदुः श्रमणं बुधाः ॥८५६॥ यो हताशः प्रशान्ताशस्तमाशाम्बरमूचिरे । यः सर्वसङ्गसंत्यक्तः स नग्नः परिकीर्तितः ॥ ८६० ॥ रेणात्क्लेशराशीनामृषिमाहुर्मनीषिणः । मान्यत्वादात्मविद्यानां महद्भिः कीर्त्यते मुनिः ॥ ८६१ ॥ यः पापपाशनाशाय यतते स यतिर्भवेत् । saint देहगेहेऽपि सोऽनगारः सतां मतः ॥८६२ ॥ आत्माशुद्धिकरैर्यस्य न संगः कर्मदुर्जनैः । स पुमाशुचिराख्यातो नाम्बुसंप्लुतमस्तकः ॥ ८६३॥ धर्मकर्मफलेsarat निवृत्तोऽधर्मकर्मणः । मुनियोंके विविध नामोंका अर्थ उन-उन गुणों की प्रधानता के कारण मुनि अनेक प्रकारके बतलाये हैं । अब उनके उन नामों की युक्तिपूर्वक निरुक्ति बतलाते हैं, उसे मुझसे सुनिए || ८५७|| जो सब इन्द्रियोंको जीतकर अपने से अपने को जानता है वह गृहस्थ हो या वानप्रस्थ, उसे जितेन्द्रिय कहते हैं || ८५८ || मान, माया, मस्ती और क्रोधका नाश कर देनेसे क्षपण कहते हैं और जगह-जगह विहार करता हुआ वह थकता नहीं है इसलिए उसे श्रमण कहते हैं ।। ८५९ ।। उसने अपनी लालसाओं को नष्ट कर दिया है अथवा उसकी लालसाएँ शान्त हो गयी हैं इसलिए उसे आशाम्बर कहते हैं और वह अन्तरंग तथा बहिरंग सब परिग्रहोंसे रहित है इसलिए उसे नग्न कहते हैं ।। ८६० ॥ क्लेश समूहको रोकने के कारण विद्वान् लोग उसे ऋषि कहते हैं। और आत्मविद्या में मान्य होने के कारण महात्मा लोग उसे मुनि कहते हैं ।। ८६१ ।। चूँकि वह पापरूपी बन्धन के नाश करने का यत्न करता है इसलिए उसे यति कहते हैं और शरीररूपी घरमें भी उसकी रुचि नहीं है, इसलिए उसे अनगार कहते हैं ॥। ८६२ ।। जो आत्माको मलिन करनेवाले कर्म रूपी दुर्जनोंसे सम्बन्ध नहीं रखता, वही मनुष्य शुचि या शुद्ध है, सिरसे पानी डालनेवाला नहीं । अर्थात् जो पानीसे शरीरको मलमलकर धोता है वह पवित्र नहीं है किन्तु जिसकी आत्मा निर्मल है वही पवित्र है । अथात् यद्यपि मुनि स्नान नहीं करते किन्तु उनकी आत्मा निर्मल है इसलिए उन्हें पवित्र या शुचि कहते हैं । ८६३ ।। जो धर्माचरणके फलमें इच्छा नहीं रखता तथा अधर्माचरणका त्यागी है और केवल आत्मा ही जिसका परिवार या सम्पत्ति है उसे निर्मम कहते हैं । अर्थात् मुनि अधार्मिक काम नहीं I १. संवरणात् ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy