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________________ ३०६ सोमदेव विरचित [कल्प ४३, श्लो० ८२५ अतद्गुणेषु भावेषु व्यवहारप्रसिद्धये । यत्संशाकर्म तमाम नरेच्छावशवर्तनात् ॥८२५॥ साकोरे वा निराकारे काष्ठादौ यन्निवेशनम् । सोऽयमित्यवधानेन स्थापना सा निगद्यते ॥२६॥ आगामिगुणयोग्योऽर्थो द्रव्यन्यासस्य गोचरः। तत्कालपर्ययाकान्तं वस्तु भावो विधीयते ॥८२७॥ भावार्थ-ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकारके समयमें मुनियोंमें शिथिलाचार अधिक बढ़ गया था, जिसके कारण गृहस्थ लोग उन्हें आहार देते हुए भी झिझकते थे और परीक्षा करके ही आहार देते थे । इसीलिए ग्रन्थकारको यह लिखना पड़ा कि भोजन देनेमें मुनियोंकी क्या परीक्षा करते हो, गृहस्थ तो दान देनेसे शद्ध होता है आदि। उन्होंने चार निक्षेपोंकी अपेक्षासे मुनियोंके चार भेद करके नामके मुनियोंको भी दान सम्मानके योग्य बतलाया है। ये सब उन्होंने साधर्मी प्रेमवश ही लिखा प्रतीत होता है। इसमें तो सन्देह नहीं कि ग्रन्थकारकी दृष्टि उदार है और वह यह खूब समझते हैं कि धार्मिक संस्थाकी स्थिति कैसे रह सकती है । इसीसे वे लिखते हैं कि जिन भगवान्का धर्म एक आदमीके ऊपर निर्भर नहीं रह सकता । इसमें तो तरह-तरहके आदमी भरे हैं और उन सबका ही ध्यान रखना जरूरी है। उसके बिना वह चल नहीं सकता। अतः गृहस्थोंको भोजन तो सभीको देना चाहिए किन्तु जैसे-जैसे जिसमें गुण अधिक हों वैसे-वैसे उसका विशिष्ट समादर करना चाहिए । जो नामसे मुनि हैं वा स्थापनासे मुनि हैं उनसे द्रव्यमुनि उत्तम हैं और द्रव्यमुनिसे भावमुनि उत्तम हैं। अतः नामसे मुनि और स्थापनासे मुनिकी अपेक्षा द्रव्यमुनि और भावमुनिका विशिष्ट समादर करना चाहिए । 'सब धान बाईस पसेरी'की कहावत नहीं चरितार्थ करना चाहिए। [अब क्रमशः चारों निक्षेपोंका स्वरूप बतलाते हैं-] नामनिक्षेप ___नामसे व्यक्त होनेवाले गुणसे हीन पदार्थोंमें लोक-व्यवहार चलानेके लिए मनुष्य अपनी इच्छानुसार जो नाम रख लेते हैं उसे नामनिक्षेप कहते हैं ।।८२५॥ स्थापनानिक्षेप तदाकार या अतदाकार लकड़ी वगैरहमें 'यह अमुक है' इस प्रकारके अभिप्रायसे जो स्थापना की जाती है उसे स्थापनानिक्षेप कहते हैं ॥८२६॥ द्रव्य और भावनिक्षेप जो पदार्थ भविष्यमें अमुक गुणोंसे विशिष्ट होगा उसे अभी ही से उस नामसे पुकारना द्रव्यनिक्षेप है। और जो वस्तु जिस समय जिस पर्यायसे विशिष्ट है उसे उस समय उसी रूप १. "अतद्गुणे वस्तुनि सव्यवहारार्थ पुरुषाकारान्नियुज्यमानं संज्ञाकर्म नाम ।" सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवातिक, श्लोकवार्तिक १-५ । २. "काष्ठपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु सोऽयमिति स्थाप्यमाना स्थापना।"सर्वार्थसि०. तत्त्वार्थवातिक १-५ । ३. "अनागतपरिणामविशेष प्रति गृहीताभिमख्यं द्रव्यम् । अतदभवं वा"तत्त्वार्थवातिक१-५। ४. "वर्तमानतत्पर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भावः।"-सर्वार्थसि०, तत्त्वार्थवार्तिक १-५ । ५. 'वोऽभिधीयते' इति पाठः प्रतिभाति ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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