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________________ २४ -७३२] उपासकाध्ययन धूमपचिर्वमेत्पापं गुरुबीजेन ताहशा। गृखोयादमृतं तेन तद्वर्णेन मुहुर्मुहुः ॥३१॥ 'संन्यस्ताभ्यामघोहि भ्यामूर्वोरुपरि युक्तितः। . है और फिर उस कर्णिकाके ऊपर स्थित सिंहासनपर अपनेको बैठा हुआ विचारता है । यह पार्थिवी धारणा है । अब आग्नेयी धारणाको कहते हैं-फिर वह योगी अपने नाभिमण्डलमें सोलह पत्रों के एक कमलका चिन्तन करता है। फिर उन सोलह पत्रोंपर अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः। इन सोलह अक्षरोंका ध्यान करता है और कमलकी कर्णिकापर 'ई' का ध्यान करता है फिर 'ह' की रेफसे निकलती हुई धमकी शिखाका चिन्तन करता है। फिर उसमें से निकलते हुए स्फुलिंगोंका चिन्तन करता है। फिर उसमें-से निकलती हुई ज्वालाकी लपटोंका और उन लपटोंके द्वारा हृदयस्थित कमलको जलता हुआ चिन्तन करता है। उस कमलके जल चुकनेके पश्चात् शरीरके बाहर बड़वानलकी तरह जलती हुई अग्निका चिन्तन करता है। यह प्रज्वलित अग्नि उस नाभिस्थ कमलको और शरीरको भस्म करके जलानेके लिए कुछ शेष न रहनेसे स्वयं शान्त हो जाती है ऐसा चिन्तन करता है। अब मारुती धारणाको कहते हैं-फिर योगी आकाशको पूरकर विचरते हुए महावेगशाली और महाबलवान वायुमण्डलका चिन्तन करता है। उसके बाद ऐसा चिन्तन करता है कि उस महावायुने शरीरादिकके सब भस्मको उड़ा दिया है। आगे वारुणी धारणाको कहते हैं-फिर वह योगी बिजलो गर्जन आदि सहित मेघोंके समूहसे भरे हुए आकाशका चिन्तन करता है। फिर उनको बरसते हुए चिन्तन करता है। फिर उस जलके प्रवाहसे शरीरादिकी भस्मको बहता हुआ चिन्तन करता है । अब तत्त्वरूपवती धारणाको कहते हैंफिर वह योगी पूर्ण चन्द्रमाके समान निर्मल सर्वज्ञ आत्माका चिन्तन करता है। फिर वह ऐसा चिन्तन करता है कि वह आत्मा सिंहासनपर विराजमान है, दिव्य अतिशयोंसे सहित है और देवदानव उसकी पूजा कर रहे हैं। फिर वह उसे आठ कोसे रहित पुरुषाकार चिन्तन करता है। यह तत्त्व-रूपवती धारणा है । इस प्रकार पिण्डस्थ ध्यानका अभ्यासी योगी शीघ्र ही मोक्ष सुखको प्राप्त कर लेता है । उक्त श्लोकके द्वारा ग्रन्थकारने इन्ही धारणाओंका कथन किया है। उस प्रकारके बीजाक्षर 'ई' से धूमकी तरह पापको नष्ट करना चाहिए । अर्थात् आग्नेयो धारणामें ई की रेफसे निकलती हुई धूमशिखाका चिन्तन करनेसे धूमकी तरह पापका क्षय होता है । तथा उस अमृत वर्ण पकारसे बारम्बार अमृतको ग्रहण करना चाहिए ।।७३१।। [इसका भाव अस्पष्ट नहीं हो सका है।] ध्यानके आसनोंका स्वरूप जिसमें दोनों पैर दोनों घुटनोंसे नीचे दोनों पिण्डलियोंपर रखकर बैठा जाता है उसे पद्मा १. निवतेत् आ.। २. हुंकारेण ! हंकारेण ( ? ) । ३. अमृतवर्णेन पकारेण । ४. सक्थ्योरधःपादी तदा पद्मासनम् । सक्थ्योरुपरि तदा वीरासनम् । चूंटा उपरि घुटा तदा सुखासनम । 'जङ्गाया जङ्गया श्लेषो समभागे प्रकीर्तितम् । पद्मासनं सुखावायि सुमाध्यं सकलजनः ॥ ४५ ॥ बुधरुपर्यधोभागे जङ्गयोरुभयोरपि । समस्तयोः कृते ज्ञयं पर्यङ्कासनमासनम् ।।४६।। ऊर्वोपरि निक्षेपे पादयोविहिते सति । वीरासनं चिरं कर्तुं शक्यं वीरन कातरैः ।। ४७ ॥-अमित श्रा०, ८ प० । 'पद्मासनं स्थिती पादौ जङ्काभ्यामुत्तराधरे । ते पर्यङ्कासनं न्यस्तावों वोरासनं क्रमौ ॥८३॥' -अनगारधर्मामत ८ अ.।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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