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________________ २७५ -७०५] उपासकाध्ययन कुर्यात्तपो जपेन्मन्त्रान्नमस्येद्वाऽपि देवताः। सस्पृहं यदि तच्चेतो रिक्तः सोऽमुत्र चेह व ॥७०१॥ ध्यायेद्वा वाङ्मयं ज्योतिर्मुरुपञ्चकवाचकम् । एतद्धि सर्वविद्यानामधिष्ठानमनश्वरम् ॥७०२॥ ध्यायन् विन्यस्य देहेऽस्मिन्निदं मन्दिरमुद्रया। सर्वनामादिवर्णार्ह वर्णाद्यन्तं सबीजम् ॥७०३॥ तपाश्रुतविहीनोऽपि तद्धयानाविद्धमानसः । न जातु तमसां स्रष्टा तत्तत्त्वरुचिदीप्तधीः ॥७०४॥ अधीत्य सर्वशास्त्राणि विधाय च तपः परम् । इमं मन्त्रं स्मरन्त्यन्ते मुनयोऽनन्यचेतसः ॥७०५॥ अनायास हो जाती है । अतः विपत्तिमें पड़कर भी रागा, द्वेषी देवताओंकी आराधना नहीं करनी चाहिए। निष्काम होकर धर्माचरण करना चाहिए तप करो, मन्त्रों का जाप करो अथवा देवोंको नमस्कार करो, किन्तु यदि चित्तमें सांसारिक वस्तुओंकी चाह है कि हमें यह मिल जाये तो वह इस लोकमें भी खाली हाथ रहता है और परलोकमें भी खाली हाथ रहता है ॥ ७०१ ॥ भावार्थ-वैसे तो इच्छा मात्र ही बुरी है क्योंकि वह मोहकी पर्याय है। किन्तु सांसारिक भोगोंकी चाह तो एकदम ही बुरी है; क्योंकि वह मनुष्यको पथभ्रष्ट कर देती है। यदि चाह पूरी न हुई तो आराधक उस मार्गको व्यर्थ समझकर छोड़ देता है और यदि पूरी हो गयी तो विषय भोगमें मग्न होकर प्राणी स्वयं पथभ्रष्ट हो जाता है। अतः धर्म जिस चीजको त्याज्य बतलाता है धर्म करके उसीको चाहना करना नासमझी है। फिर चाह करनेसे कोई चीज मिल ही जाये इसकी क्या गारण्टी है ? क्योंकि चाह करनेपर भी किसी वस्तुका मिलना अपने लाभान्तराय कर्मके क्षयोपशमपर निर्भर है । यदि क्षयोपशम हुआ तो बिना चाहके भी वस्तु मिल जाती है और यदि क्षयोपशम न हुआ तो लाख चाह करनेपर भी कुछ नहीं मिलता। अतः जप तप या देवपूजा निस्पृह होकर ही करना चाहिए। - अथवा पञ्च परमेष्ठीके वाचक मंत्रका ध्यान करना चाहिए; क्योंकि यह मंत्र सब विद्याओंका अविनाशी स्थान है ॥ ७०२ ॥ जिसमें पञ्च नमस्कार मंत्रके पाँचों पदोंके प्रथम अक्षर सन्निविष्ट हैं ऐसे 'अहं' इस मन्त्रको इस शरीरमें स्थापित करके मन्दिर मुद्राके द्वारा ध्यान करनेवाला मनुष्य तप और श्रुतसे रहित होनेपर भी कभी अज्ञानका जनक नहीं होता; क्योंकि उसकी बुद्धि उस तत्त्वमें रुचि होनेसे सदा प्रकाशित रहती है ।। ७०३-७०४ ।। सब शास्त्रोंका अध्ययन करके तथा उत्कृष्ट तपस्या करके मुनिजन अन्त समय मन लगाकर इसी मन्त्रका ध्यान करते हैं:।। ७०५ ॥ ___१. मस्तकोपरि हस्तद्वयेन शिखराकारकुड्नलः क्रियते स एव मन्दिरः । २. पञ्चपदप्रथमाक्षरेण योग्यम् । अर्हन्-शब्दस्य अर्ह इति गृह्यते । अशरीर अर, अर्य अर, अध्यापक अ, मुनि म् । पश्चात् रूपे रूपं प्रविष्टमिति वचनात् अकाररकाराश्च लुप्यन्ते । तदनन्तरं अर्ह इत्यत्र उच्चारणार्थम् अकार: विप्यते । मोऽनुस्वार व्यजने अर्ह इति तत्त्वं निष्णनम् । ३. अहम् । ४. साक्षरं ध्यानमिदम् । 'अकारादि हकारान्तं रेफमध्यं सबिन्दुकम् । तदेव परमं तत्त्वं यो जानाति स तत्त्ववित् ।।'-ज्ञानार्णव पृ. २९१ पर उद्धृत ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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