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________________ २७० - सोमदेव विरचित रूप ३६, श्लो०६७७ सर्वसंस्तुत्यमस्तुत्यं सर्वेश्वरमनीश्वरम् । सर्वाराज्यमनाराभ्यं सर्वाश्रयमनाभयम् ॥६७७॥ प्रभवं सर्वविद्यानां सर्वलोकपितामहम् । सर्वसरवहितारम्भ गतसर्वमसर्वगम् ॥६७८॥ नघ्रामरकिरीटांयुपरिवेषनभस्तले। भवत्पादवयचोतिनबनक्षत्रमण्डलम् ॥६॥ स्तूयमानमनूचानझोपेब्रह्मकामिभिः। मध्यात्मानमवेधोभियोंगिमुख्यमहर्जिमिः ॥६८०॥ नीरूपं पिताशेषमशब्दं शब्दनिष्ठितम् । मस्पर्श योगसंस्पर्शमरसं सरसागमम् ॥६८१॥ गुणैः सुरभितात्मानमगन्धगुणसंगमम् । व्यतीतेन्द्रियसंबन्धमिन्द्रियार्थावभासकम् ॥६८२॥ भुवमानन्दसस्यानामम्भस्तृष्णानलार्चिषाम् । . पवनं दोषरेणूनामग्निमेनोवनीरुहाम् ॥६८३॥ यजमान सदर्थानां व्योमालेपादिसंपदाम् । भानुं भव्यारविन्दानां चन्द्रं मोक्षामृतश्रियाम् ॥६८४॥ नहीं, स्वयं सबके स्वामी किन्तु जिनका स्वामी कोई नहीं, सबके आराध्य किन्तु जिनका कोई आराध्य नहीं, सबके आश्रय किन्तु जिनका कोई आश्रय नहीं, समस्त विद्याओंके उत्पत्तिस्थान, सब लोकोंके पितामह, सब प्राणियोंके हितू , सबके ज्ञाता, स्वशरीर प्रमाण, नमस्कार करते हुए देवोंके मुकुटोंके किरण जालरूपी आकाशमें जिनके दोनों चरणोंके प्रकाशमान नख नक्षत्रमण्डलके समान प्रतीत होते हैं, ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मको पानेके इच्छुक अध्यात्म शास्त्रके रचयिता ऋद्धिधारी ऋषिगण जिनकी स्तुति करते हैं, उन रूपरहित किन्तु सबका निरूपण करनेवाले, स्वयं शब्दरूप न होते हुए भी शब्द यानी आगमके द्वारा कहे जानेवाले, स्पर्शगुणसे रहित किन्तु ध्यानके द्वारा स्पृष्ट, रस गुणसे रहित किन्तु सरस उपदेशके दाता, गन्ध गुणसे रहित किन्तु गुणोंकी सुगन्धसे विशिष्ट, इन्द्रियोंके सम्बन्धसे रहित किन्तु इन्द्रियोंके विषयोंके प्रकाशक, आनन्दरूपी धान्यकी उत्पत्तिके लिए पृथ्वीकी तृष्णारूपी अग्निकी उपटोंको शान्त करनेके लिए पानी, दोषरूपी धूलिको हटानेके लिए वायु, पापरूपी वृक्षोंको जलानेके लिए अग्नि, बाकाशकी तरह निर्लिप्त रहना आदि उत्तमोत्तम सम्पत्तियोंके दाता, भव्यरूपी कमलोंके विकासके लिए सूर्य, मोक्षरूपी अमृतके लिए चन्द्रमा, अलौकिक गुणशाली, समस्त गुणोंके भाजन, सब मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले, कामविकारको दूर करनेवाले, नेयायिक मतमें निर्वाणका स्वरूप आकाशकी तरह माना गया है क्योंकि मुक्त अवस्थामें आत्माके विशेष गुणोंका उच्छेद हो जाता है। सांख्य मतमें निर्वाणका स्वरूप सोये हुए १. न विद्यते स्तुत्यो यस्य। २. न विद्यते ईश्वरः स्वामी यस्य । ३. ज्ञातं सर्व येन । ४. न सर्व गच्छतीति शरीरप्रमाणमित्यर्थः । ५. श्रूयमान-अ. ज. । ६. ब्रह्मविद्भिः। ७. आगमकर्तृभिः । ८. आगमेन निष्ठा यस्य । ९. ध्यान । १०. दातारं उत्तमार्थानाम् ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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