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________________ -६४५ ] उपासकाध्ययन कर्माण्यपि यदीमानि साध्यान्येवंविधैर्नयैः । श्रखं तपोपाप्त ष्टिदानाध्ययनकर्मभिः ||६४०|| योऽविचारितरम्येषु क्षणं देहार्तिहारिषु । इन्द्रियार्थेषु वश्यात्मा सोऽपि योगी किलोच्यते ॥ ६४१ || यस्येन्द्रियार्थतृष्णापि जर्जरीकुरुते मनः । तन्निरोधभुवो धाम्नः स ईप्लीत कथं नरः || ६४२ || आत्मशः संचितं दोषं 'यातनायोगकर्मभिः । कालेन क्षपयन्नेति योगी रोगी च कल्पताम् ||६४३ ॥ 'लाभेलाभे वने वाले मित्रेऽमित्रे प्रियेऽप्रिये । सुखे दुःखे समानात्मा भवेत्तद्ध्यानधीः सदा ||६४४|| परे ब्रह्मण्यनूचानो' धृतिमैत्रीदयान्वितः । अन्यत्र" सूनृताद्वाक्यान्नित्यं वाचंयमी " भवेत् ||६४५ || २६१ उनकी कामना सिद्धि, दुःखनिवृत्ति और रोगशान्ति होती है, इसके द्वारा वे परदेह में भी प्रवेश कर सकते हैं और अनायास ही कालको भी जीतनेमें समर्थ होते हैं । यह तन्त्रसाधकों का मत है । इसी मतका निरूपण तथा निषेध ग्रन्थकारने श्लोक नम्बर ६३७-६३६ में किया है । यदि इस प्रकारके प्रपंचोंसे ये काम हो सकते हैं तो जप-तप, देवपूजा, दान और शास्त्रपठन, आदि कर्म व्यर्थ ही हैं ॥ ६४०|| कैसी विचित्र बात है कि जो बिना विचारे सुन्दर प्रतीत होनेवाले और क्षण भरके लिए शारीरिक पीड़ाको हरनेवाले इन्द्रियोंके विषयोंमें फँसा हुआ है वह भी योगी कहा जाता है ||६४१॥ इन्द्रियोंके विषयों की लालसा जिसके मनको सताती रहती है वह मनुष्य इन्द्रियोंके निरोधसे प्राप्त होनेवाले मोक्ष धामकी इच्छा ही कैसे कर सकता है ॥ ६४२ ॥ भावार्थ - जो साधु संन्यासी प्राणायाम वगैरहकी साधना के द्वारा अपने शरीरको पुष्ट बना लेते हैं और इन्द्रियों का निग्रह न करके विषयासक्त देखे जाते हैं उन्हें भी लोग योगी मानते हैं, किन्तु वे योगी नहीं हैं । योगी वही है जो इन्द्रियासक्त नहीं है । 1 रोगी भी अपनेको जानता है। योगी भी अपनी आत्माको जानता है। रोगी अपने शरीरमें संचित हुए दोषको समय से उपवास आदिके कष्ट तथा औषधादिके द्वारा क्षय कर देता है और रोग हो जाता है। योगी भी अपनी आत्मामें संचित हुए दोषको परीषहसहन तथा ध्यानादिकके द्वारा समय क्षय कर देता है और मुक्तावस्थाको प्राप्त कर लेता है || ६४३॥ जो ध्यान करना चाहता है उसे सदा हानि और लाभमें, वन और घरमें शत्रुमें, प्रिय और अप्रियमें तथा सुख और दुःखमें समभाव रखना चाहिए || ६४४ ॥ - आत्मतत्त्वका पूर्णज्ञाता होने के साथ-साथ धैर्य, मित्रता और दयासे युक्त होना चाहिए। सदा सत्य वचन ही बोलना चाहिए, अथवा मौनपूर्वक रहना चाहिए। एक पुस्तक में 'सूत्रित ' मित्र और तथा परम और उसे १. जिनपूजा । २. इन्द्रिय । ३ कथं प्राप्तुमिच्छति । ४. तीव्रवेदना । ५. योग औषधप्रयोग; ध्यानं च । ६. क्षयं कुर्वन् । ७. नीरोगताम् । ८. 'लाभा - लाभे सुखे दुःखे शत्रौ मित्रे प्रियेऽप्रिये । मानापमानयोस्तुल्यो मृत्युजीवितयोरपि ॥ २६ ॥ - अमित० श्राव०, परि० १५ । ९. प्रियाप्रियवस्तूपनिपाते चित्तस्याविकृतिः धृतिः । सर्वसत्त्वानभिद्रोहबुद्धि: मैत्री । आत्मवत् परस्यापि हितापादनवृत्तिर्दया । १०. विना । ११. सत्यं वदेत् अथवा मौनी स्यात् ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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