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________________ २५२ सोमदेव विरचित [ कल्प ३८, श्लो० ६०८ मन्त्रोऽयमेव सेव्यः परत्र मन्त्रे फलोपलम्भेऽपि । यद्यप्यविटपी फलति तथाप्यस्य सिच्यते मूलम् ||६०८ || अत्रामुत्र च नियतं कामितफलसिद्धये परो मन्त्रः । नाभूदस्ति भविष्यति गुरुपञ्चकवाचकान्मन्त्रात् ॥ ६०६ ॥ अभिलषितकामधेनौ दुरितद्रुमपावके हि मन्त्रेऽस्मिन् । दृष्टादृष्टफले सति परत्र मन्त्रे कथं सजतु ॥ ६१०॥ इत्थं मनो मनसि बाह्यमबाह्यवृतिं कृत्वा हृषीकनगरं मरुतो नियम्य । सम्यग्जप ं विदधतः सुधियः प्रयत्नानो कत्रयेऽस्य कृतिनः किमसाध्यमस्ति ॥ ६११ ॥ इत्युपासकाध्ययने जपविधिर्नामाष्टत्रिंशत्तमः कल्पः । आदिध्यासुः परंज्योतिरीप्सु स्तद्धाम शाश्वतम् । इमं ध्यानविधिं यत्नादभ्यस्यतु समाहितः ||६१२ ॥ तस्वचिन्तामृताम्भोधौ दृढमग्नतया मनः । बहिर्व्याप्तौ जडं कृत्वा द्वयमासनमाचरेत् ॥ ६१३॥ सूक्ष्मप्राणयमायामः सर्वेसर्वाङ्गसंचरः । "प्रावोत्कीर्ण इवासीत ध्यानानन्दसुधां लिहन् || ६१४ || अन्य मन्त्रोंसे फल प्राप्ति होनेपर भी इसी नमस्कारमन्त्रकी आराधना करनी चाहिए । क्योंकि यद्यपि वृक्षके ऊपर के भागमें फल लगते हैं फिर भी उसकी जड़ ही सींची जाती है । अर्थात् यह मन्त्र सब मन्त्रोंका मूल है इसलिए इसीकी आराधना करनी चाहिए || ६०८॥ पंच परमेष्ठीके वाचक इस णमोकार मन्त्रके सिवा इस लोक और परलोकमें इच्छित कलको नियमसे देनेवाला दूसरा मन्त्र न था, न है और न होगा || ६०९ || जब यह मन्त्र इच्छित वस्तुके लिए कामधेनु और पापरूपी वृक्षके लिए आगके समान हैं तथा दृष्ट और अदृष्ट फलको देता है तो अन्य मन्त्रों में क्यों लगा जाये । अर्थात् इसी एक मन्त्रका जप करना उचित है ॥ ६१० ॥ इस प्रकार मनको मनमें और इन्द्रियोंके समूहको आभ्यन्तरकी ओर करके तथा श्वासोच्छ्वासका नियमन करके जो बुद्धिमान् प्रयत्नपूर्वक सम्यग् जप करता है उस कर्मठ व्यक्तिके लिए तीनों लोकों में कुछ भी असाध्य नहीं है ||६११॥ इस प्रकार उपासकाध्ययनमें जपविधि नामका अड़तीसवाँ कल्प समाप्त हुआ । [ अब ध्यान की विधि बतलाते हैं ] ध्यानविधि जो अर्हन्त भगवान् का ध्यान करनेका इच्छुक है और उस स्थायी मोक्ष स्थानको प्राप्त करना चाहता है, उसे सावधान होकर प्रयत्नपूर्वक आगे बतलायी गयी ध्यानकी विधिका अभ्यास करना चाहिए ||६१२॥ तत्त्वचिन्तारूपी अमृतके समुद्र में मनको ऐसा डुबा दो कि वह बाबा बातोंमें एकदम जड़ हो जाये और फिर पद्मासन या खड्गासन लगाओ ॥६१३॥ ध्यानरूपी आनन्दामृत का पान करते समय श्वासवायुको बहुत धीमेसे अन्दरकी ओर जाना चाहिए और बहुत धीमे से बाहर निकालना चाहिए । तथा समस्त अंगोंका हलन चलन एकदम बन्द होना चाहिए। उस समय ध्यानी पुरुष ऐसा मालूम हो मानो कोई पत्थर की १. आध्यातुमिच्छुः । २. वाञ्छन् । ३. सूक्ष्म उच्छ्वासनिश्वासः, तस्य यमः प्रवेशः आयामो निर्गमः | ४. सन्नः निश्चल: । ५. पाषाणघटितः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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