SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 361
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -५५४] उपासकाभ्ययन २३६ बोधाधीश' विमुञ्च संप्रति मुहुर्दुष्कर्मधर्मक्लमं त्रैलोक्यप्रमदाव हैर्जिनपतेर्गन्धोदकैः स्नापनात् ॥५४८॥ शुद्धैर्विशुद्धबोधस्य जिनेशस्योत्तरोदकैः। करोम्यवभृथस्नानमुत्तरोत्तरसंपदे ॥५४६॥ अमृतकृतकर्णिकेऽस्मिन्निजाङ्कबीजे कलादले कमले । संस्थाप्य पूजयेयं त्रिभुवनवरदं जिनं विधिना ॥५५०।। पुण्योपार्जनशरणं पुराणपुरुषं स्तवोचिताचरणम् । पुरुहूतविहितसेवं पुरुदेवं पूजयामि तोयेन ॥५५१॥ मन्दमदर्मदनदमनं मन्दरगिरिशिखरमजनावसरम् । कन्दमुलतिकायाश्चन्दनचर्चार्चितं जिनं कुर्वे ॥५५२।। अवमें तरुगहनदहनं निकाससुखसंभवामृतस्थानम् । आगमदीपालोकं कलमभवैस्तन्दुलैर्भजामि जिनम् ॥५५३।। स्मररसे विमुक्तसृक्तिं विज्ञानसमुद्रमुद्रिताशेषम् । श्रीमानसकलहंसं कुसुमशरैरर्चयामि जिननाथम् ॥५५४॥ कल्पलता ! तुम मनुष्योंके आनन्दरूपी पल्लवोंसे उल्लासको प्राप्त होवो । हे धर्मरूपी उद्यान ! तुम फलोंसे अत्यन्त सुन्दर होकर भव्यजीवोंके सेवनीय बनो। और हे ज्ञानवान् आत्मा ! तुम अब दुष्कर्मरूपी घामके सन्तापको छोड़ो, अर्थात् बुरे कर्म करना छोड़ दो। और बुरे कोंके फलसे मुक्त हो जाओ ॥५४८॥ अधिकाधिक सम्पत्तिके लिए विशुद्ध ज्ञानी जिनेन्द्र भगवान्का तालाव वगैरहसे लाये गये शुद्ध जलसे मैं अन्तिम स्नान कराता हूँ ॥५४९॥ इस सोलह पांखुड़ीके कमलपर तीनों लोकोंको मनवांछित वर देनेवाले जिनेन्द्र भगवान् को विधिपूर्वक स्थापित करके पूजना चाहिए ॥५५०।। [ इस श्लोकके पूर्वार्धके पदोंका अर्थ स्पष्ट नहीं हो सका है । टिप्पणके अनुसार उस कमलकी कणिका पवर्गसे निर्मित होती है और उसके मध्यमें अपना नाम स्थापित किया जाता है ] जो पुण्यके कमानेके लिए आश्रयभूत हैं, पुराण पुरुष हैं, जिनका आचरण स्तुतिके योग्य है, और इन्द्रने जिनकी सेवा की थी, उन प्रथम तीर्थकर आदिनाथकी मैं जलसे पूजा करता हूँ ॥५५१॥ जो अत्यधिक मदशाली कामका दमन करनेवाले हैं, सुमेरु पर्वतके शिखरपर जिनका अभिषेक हुआ है तथा जो यशरूपी बेलको जड़ है उन जिनदेवकी चन्दनसे पूजा करता हूँ ॥५५२॥ दोषरू पी वृक्षोंके जङ्गलको जलानेवाले, उत्तम सुखकी उत्पत्तिके लिए मोक्षके समान तथा आगमरूपी दीपकके प्रकाशक जिनेन्द्रदेवकी सुगन्धित तन्दुलोंसे पूजन करता हूँ ॥५५३॥ जिनकी सूक्तियाँ शृङ्गार रससे रहित हैं, जिन्होंने अपने ज्ञानरूपी समुद्रसे सबको आच्छादित किया है और जो लक्ष्मीरूपी मानसरोवरके राजहंस हैं, उन जिनेन्द्रदेवकी पुष्पोंसे पूजा करता हूँ ॥५५४॥ अनन्त १. हे आत्मन् । २. श्रेष्ठजलः। ३. यज्ञान्तस्नानम् । ४. पवर्णः । ५. षोडश । पकारेण कणिका क्रियते, तन्मध्ये स्वकीयं नाम निक्षिप्यते, षोडशदलेषु अकारादयः स्वराः लिख्यन्ते । ६. गृहं । ७. इन्द्र । ८. आदिभगवन्तम् । ९. प्रचुरदर्पसहितकामदमनम् । १०. कीर्ति । ११. दोष । १२. रागादिविमुक्ता सूक्ति अर्चनं; यस्य स तम् ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy