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________________ २३० सोमदेव विरचित [कल्प ३५, श्लो० ५१३. वन्दे तत्पुरपालमौलिविलसदलप्रदीपार्चिताः साम्राज्याय जिनेन्द्रसिद्धगणभृत्स्वाभ्यायिसाध्वाकृतीः ॥१३॥ [इति चैत्यभक्तिः ] समवसरणेवासान् मुक्तिलक्ष्मीविलासान् . सकलसमय थान वाक्यविघोसनाथान् । भवनिर्गलविनाशोद्योगयोगप्रकाशान् निरुपमगुणभावान् संस्तुवेऽहं क्रियावान् ॥१४॥ - [इति पञ्चगुरुभक्तिः] भवदुःखानलशान्तिर्धर्मामृतवर्षजनितजनशान्तिः ।। शिवशर्मास्रवशान्तिः शान्तिकरः स्तालिनः शान्तिः ॥५१५॥ [इति शान्तिभक्तिः मनोमात्रोचितायापि यः पुण्याय न चेष्टते । हताशस्य कथं तस्य कृतार्थाः स्युमनोरथाः ॥५१६॥ स्वर्गलोकमें, ज्योतिषी देवोंके विमानोंमें, कुलाचलोंपर, पाताल लोक तथा गुफाओंमें जो अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठीकी प्रतिमाएँ हैं, जिन्हें उन स्थानोंके रक्षक अपने मुकुटोंमें जड़े हुए रत्न रूपी दीपकोंसे पूजते हैं, मैं साम्राज्यके लिए उन्हें नमस्कार करता हूँ ॥५१३॥ [ इस प्रकार चैत्य भक्ति समाप्त हुई।] पञ्चगुरु भक्ति [फिर पञ्च गुरुओंकी भक्ति करे-] समवशरणमें विराजमान अर्हन्तोंको, मुक्तिरूपी लक्ष्मीसे आलिंगित सिद्धोंको, समस्त शास्त्रोंके पारगामी आचार्योंको, शब्दशास्त्रमें निपुण उपाध्यायोंको और संसार रूपी बन्धनका विनाश करनेके लिए सदा उद्योगशील, योगका प्रकाश करनेवाले और अनुपम गुणवाले साधुओंको क्रिया कर्ममें उद्यत मैं नमस्कार करता हूँ ॥५१४॥ [ इस प्रकार पञ्चगुरुकी भक्ति करके फिर शान्ति भक्ति करे-] शान्ति भक्ति संसारके दुःखरूपी अग्निको शान्त करनेवाले, और धर्मामृतकी वर्षा करके जनतामें शान्ति करनेवाले तथा मोक्षसुखके विघ्नोंको शान्त–नष्ट कर देनेवाले शान्तिनाथ भगवान् शान्ति करें ॥५१५॥ जो केवल मानसिक संकल्पसे होने योग्य पुण्यवन्धके लिए भी प्रयत्न नहीं करता, उस हताश मनुष्यके मनोरथ कैसे पूर्ण हो सकते हैं ? ॥ ५१६ ॥ [फिर आचार्य भक्ति करे-] १. उपाध्याय । २. अर्हतः । ३. सिद्धान् । ४. सूरीन् । ५. उपाध्यायान् । ६. शृंखला । ७. साधून् । ८. क्रियासुद्यतः । ९. विध्यापनं विध्यति । १०. शैत्यम् ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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