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________________ -५०१] उपासकाभ्ययन २२७ सानं दुर्भगदेहमण्डनमिव स्यात्स्वस्य स्खेदावह धत्ते साधु न तत्फलश्रियमयं सम्यक्त्वरनाङ्करः। कामं देव यदन्तरेण विफलास्तास्तास्तपोभूमय स्तस्मै त्वचरिताय संयमदमध्यानादिधान्ने नमः ॥५००॥ यचिन्तामणिरीप्सितेषु वसतिः सौरूप्यसौभाग्ययोः श्रीपाणिग्रहकौतुकं कुलबलारोग्यागमे संगमः । यत्पूर्वेश्चरितं समाधिनिधिभिर्मोक्षाय पञ्चात्मकं तश्चारित्रमहं नमामि विविधं स्वर्गापवर्गाप्तये ॥५०१।। हस्ते स्वर्गसुखान्यतर्कितभवास्ताश्चक्रवर्तिधियो देवाः पादतले लुठन्ति फलति द्यौः कामितं सर्वतः। कल्याणोत्सवसम्पदः पुनरिमास्तस्यावतारालये प्रागेवावतरन्ति यस्य चरितैजैनः पवित्रं मनः ॥५०२॥ [इति चारित्रभक्तिः] बोधोऽवधिः श्रुतमशेषनिरूपितार्थमन्तर्बहिःकरणजा सहजा मतिस्ते। इत्थं स्वतः सकलवस्तुविवेकबुद्धः का स्याजिनेन्द्र भवतः परतो व्यपेक्षा ॥५०३॥ चारित्र भक्ति [ इस प्रकार ज्ञानकी भक्ति करके फिर चारित्रकी भक्ति करे-] जिसके विना अभागे मनुष्यके शरीरमें पहनाये गये भूषणोंकी तरह ज्ञान खेदका ही कारण होता है, तथा सम्यक्त्व रत्नरूपी वृक्ष ज्ञानरूपी फलकी शोभाको ठीक रीतिसे धारण नहीं करता, और जिसके न होनेसे बड़े-बड़े तपस्वी भ्रष्ट हो गये, हे देव ! संयम, इन्द्रियनिग्रह और ध्यान वगैरहके आवास उस तुम्हारे चारित्रको मैं नमस्कार करता हूँ ॥५००॥ ___ जो इच्छित वस्तुओंको देनेके लिए चिन्तामणि है, सौन्दर्य और सौभाग्यका घर है, मोक्ष रूपी लक्ष्मीके पाणिग्रहणके लिए कंकणबन्धन है और कुल, बल और आरोग्यका संगमस्थान है अर्थात् तीनोंके होनेपर ही चारित्र धारण करना संभव होता है, और पूर्वकालीन योगियोंने मोक्षके लिए जिसे धारण किया था, स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्तिके लिए उस पाँच प्रकारके चारित्रको मैं नमस्कार करता हूँ ॥५०१॥ जिसका मन जैनाचारसे पवित्र है, स्वर्गके सुख उसके हाथमें हैं, चक्रवर्तीकी विभूतियाँ अकस्मात् उसे प्राप्त हो जाती हैं, देवता उसके पैरोंपर लोटते हैं, जिस दिशामें वह जाता है वही दिशा उसके मनोरथको पूर्ण करती है और जहाँ वह जन्म लेता है उसके जन्म लेनेसे पहिलेसे ही वहाँ कल्याणक उत्सव मनाये जाते हैं ॥५०२॥ अर्हन्त भक्ति [ इस प्रकार चारित्र भक्तिको करके फिर अर्हन्त भक्तिको करे ] हे जिनेन्द्र आपको जन्मसे ही अन्तरंग और बहिरंग इन्द्रियोंसे होनेवाला मतिज्ञान, समस्त कथित वस्तुओंको विषय करनेवाला श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान होता है, इस प्रकार आपको स्वतः ही सकल वस्तुओंका ज्ञान है तब परकी सहायताकी आपको आवश्यकता ही क्या है ? ॥५०३॥ १. चारित्रं विना । २. कंकणम् ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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