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________________ २२४ सोमदेव विराषत [कल्प ३५, श्लो० ४११गसंमार्जने घुमणिमेणिदर्पण व साक्षाद्भवन्ति ते ते भावसंप्रत्ययाः स्वभावक्षेत्रसमयविप्रकॉर्षिणोऽपि भावास्तस्यात्मलामनिवन्धनोभयहेतुविहितविचित्रपरिणतिभिर्मतिभुतावधिमनापर्ययकेवलैः पञ्चतयीमवस्थामवगाहमानस्य सकलमङ्गलविधायिनः पञ्चपरमेष्ठिपुरसरस्य भगवतः सम्यग्ज्ञानरत्नस्याष्टतयीमिष्टिं करोमीति स्वाहा। अपि च नेत्रं हिताहितालोके सूत्रं धीसौधसाधने । पात्रं पूजाविधेः कुर्वे क्षेत्रं लक्ष्म्याः समागमे ॥४६१॥ ॐ यत्सकललोकालोकावलोकनप्रतिबन्धकान्धकारविध्वंसनम्, अनवद्यविद्यामन्दाकिनीनिदानमेदिनीधरम्, अशेषसत्त्वोत्सवानन्दचन्द्रोदयम्, अखिलवतगुप्तिसमितिलतारामपुष्पाकरसमयम्, अनल्पफलप्रदायितपःकल्पद्रुमप्रसवभूमिमस्मयोपशमसौमनस्यवृत्तिधैर्यप्रधानरनुष्ठीयमानमुशन्ति सद्धीधनाः परमपदप्राप्तः प्रथममिव सोपानम्, तस्य पञ्चतयात्मनः सकि'योपशमातिशयावसानस्य सकलमङ्गलविधायिनः पञ्चपरमेष्ठिपुरःसरस्य भगवतः सूक्ष्म परमाणु वगैरह, क्षेत्र की अपेक्षा दूरवर्ती सुमेरु वगैरह और कालकी अपेक्षा दूरवर्ती राम, रावण आदि स्वात्माके द्वारा अनुभवनीय पदार्थ प्रत्यक्ष गोचर प्रतीत होते हैं; वह ज्ञान यद्यपि एक है किन्तु अपनी उत्पत्तिके अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग कारणोंसे होनेवाली विचित्र परिणतिके द्वारा मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानके भेदसे उसकी पाँच अवस्थाएँ हो गयी हैं, उस समस्त मंगलोंके कर्ता और पंचपरमेष्ठीके पुरस्कर्ता भगवान् सम्यग्ज्ञानकी आठ द्रव्योंसे पूजा करता हूँ। . जो हित और अहितको देखनेमें नेत्रके समान है, बुद्धिरूपी महलको साधनेमें सूत्रके (जिससे नापकर मकान बनाया जाता है ) समान है तथा लक्ष्मीके समागमके लिए क्षेत्रके समान है, उस सम्यग्ज्ञानको मैं पूजाविधिका पात्र बनाता हूँ अर्थात् उसकी मैं पूजा करता हूँ ॥४११॥ सम्यक्चारित्रपूजा जो समस्त लोक और अलोकके देखनेमें रुकावट डालनेवाले अज्ञानान्धकारको नष्ट कर देता है, निर्दोष विद्या ( ज्ञान ) रूपी गङ्गाके उद्गमके लिए हिमाचलके समान है अर्थात् जैसे हिमाचलसे गङ्गा निकलती है वैसे ही चारित्रकी आराधनासे निर्मलज्ञान प्रकट होता है; जो समस्त प्राणियोंके आनन्दके लिए चन्द्रोदयके समान है, अर्थात् जैसे चन्द्रमाका उदय होनेपर सबको आनन्द होता है वैसे ही चूंकि चारित्र सब जीवोंकी रक्षाका पक्षपाती है अतः सबके लिए आनन्ददायक है, समस्त व्रत, गुप्ति और समितिरूपी लताओंके उद्यानके लिए वसन्त ऋतुके समान है अर्थात् जैसे वसन्त ऋतुमें उद्यानोंमें लगी लताएँ पुष्पित हो जाती हैं वैसे ही चारित्रके धारण करनेपर व्रतादि भी खिल उठते हैं, जो बहुत फल देनेवाले तपरूपी कल्पवृक्षका उत्पत्ति स्थान है, गर्वरहित प्रशमभाव, मनकी सौम्यता और धीरता आदिके द्वारा पालन किये जानेवाले ऐसे चारित्रको निर्मल बुद्धिके धनी महात्मा मोक्षपदकी प्राप्तिका प्रथम सोपान ( सीढ़ी ) मानते हैं । सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म-साम्पराय और यथाख्यात चारित्रके भेदसे १. सूर्यकान्तमुकुरे। २. स्वात्मानुभवनीया जीवादिपदार्थाः। ३. केचन 'भावाः स्वभावेन दूराः, केचन क्षेत्रापेक्षया दूराः, केचन कालापेक्षया। ४. दूरतराः । ५. सम्यग्ज्ञानस्य । ६. अन्तरंगो बाह्यश्च । ७. केवलज्ञानहिमाचलम। ८. वसन्त । ९. अगर्व । १०. सामायिकादिपञ्चप्रकारस्य । ११. मनोवाक्कायव्यापारक्षयपर्यन्तस्य।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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