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________________ २०४ सोमदेव विरचित [कल्प ३२, श्लो० ४३४. चेतनाचेतनासङ्गाद्विधा बाह्यपरिप्रहः । अन्तः स एक एव स्याद्भवहेत्वाशयाश्रयः ॥४३५॥ धनायाविद्धबुद्धीनामधनाः स्युर्मनोरथाः। न घनर्थक्रियारम्भा धीस्तदर्थिषु कामधुक् ॥४३६॥ सहसंभूतिरप्येष देहो यत्र न शाश्वतः । द्रव्यदारकदारेषु तत्र काऽऽस्था महात्मनाम् ॥४३७॥ स श्रीमानपि निःश्रीकः स नरश्च नराधमः। यो न धर्माय भोगाय विनयेत धनागमम् ॥४३८॥ प्राप्तेऽर्थे ये न माद्यन्ति नाप्राप्ते स्पृहयालवः । लोकद्वयश्रितां श्रीणां त एव परमेश्वराः ॥४३६॥ चित्तस्य वित्तचिन्तायां न फलं परमेनसः । अस्थाने क्लिश्यमानस्य न हि क्लेशात्परं फलम् ॥४४०॥ अन्तर्बहिर्गते सङ्गे निःसङ्गं यस्य मानसम् । सोऽगण्यपुण्यसंपन्नः सर्वत्र सुखमश्नुते ॥४४१॥ अथवा, चेतन और अचेतनके भेदसे बाह्य परिग्रह दो प्रकारका है, और संसारके कारणभूत कर्माशयकी अपेक्षा अन्तरङ्ग परिग्रह एक ही प्रकारका है ॥४३५॥ जो धनकी वाञ्छा करते रहते हैं उनके मनोरथ सफल नहीं होते; क्योंकि वाञ्छा करने मात्रसे इच्छित वस्तु की प्राप्ति नहीं होती ॥४३६॥ जहाँ साथ पैदा होनेवाला शरीर भी स्थायी नहीं है वहाँ शरीरसे भिन्न धन, स्त्री और पुत्रमें महात्माओंकी आस्था कैसे हो सकती है ? ॥४३७॥ वह मनुष्य धनी होकर भी गरीब है तथा मनुष्य होकर भी मनुष्योंमें नीच है जो धनको न धर्ममें लगाता है और न भोगता है ॥४३८॥ जो धनको पाकर मद नहीं करते और धनके न मिलनेपर उसकी इच्छा नहीं करते वे ही इस लोक और परलोकमें लक्ष्मीके स्वामी होते हैं ॥४३९॥ मनमें धनकी चिन्ता करनेका फल पापके सिवा और कुछ नहीं है । ठीक ही है अस्थानमें क्लेश करनेसे क्लेशके सिवा और क्या फल हो सकता है ॥४४०॥ अन्तरङ्ग और बाह्य परिग्रहमें जिसका मन अनासक्त है वह महान् पुण्यशाली सर्वत्र सुख भोगता है ॥४४१॥ १. 'अथ निश्चित्तसचित्तौ बाह्यस्य परिग्रहस्य भेदी द्वौ ।'-पुरुषार्थसि० ११७ श्लो० । २. -शमश्रयः अ० ज०। संसाराश्रयपरिणामः । ३. निष्फलाः । ४. वांछामात्रा। ५. वांछितप्रदा। ६. "तिष्ठन्तु बाह्यधनधान्यपुरःसरार्थाः संवर्धिताः प्रचुरलोभवशेन पुंसा। कायोऽपि नश्यति निजोऽयमिति प्रचिन्त्य लोभारिमुग्रमुपहन्ति विरुद्धतत्त्वम् ॥८२॥' -सुभाषितरत्नसंदोह । 'देहोऽयं सह संभूतिः सोऽप्येष नहि शाश्वतः । वाह्मास्तु द्रव्यदारादिपदार्थाः सर्वथा वृथाः ॥११३॥ प्राप्तेऽर्थे न प्रमाद्यन्ति न दूयन्तेऽन्यथा स्थिते ।' -प्रबोधसार । ७. 'पापात भिन्नं फलं न, किन्तु पापमेव भवति । वित्तार्थचित्तचिन्तायां न फलं परमेनसः । अतीवोद्योगिनोऽस्थाने न हि क्लेशात् परं फलम् ॥६३॥' -धर्मरत्ना० पृ० ९६ ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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