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________________ २०२ सोमदेव विरचित [कल्प ३१, श्लो० ४३० राजा-(चिरं निर्वर्ण्य निर्णीय च स्वरेण ।) पुरोहित, नैष खलु किअल्पः पक्षी, किं तु कडारपिङ्गोऽयम् । एषापि विहङ्गी न भवति, किं तु तडिल्लतेयं कुट्टिनी। पुण्या-देव, एतत्परिक्षाने प्रगल्भमतिप्रसवः सचिवः। राक्षा सचिवस्तथा पृष्टः मातलं प्रविविओरिवं क्षोणीतलमवालोकत । राजा-पुष्य, समास्तामयं, भवानतद्व्यतिकरं कथयितुमर्हति । पुष्यः-स्वामिन् , कुलपालिका प्रगल्भते।। भूपतिः भट्टिनीमाहूय 'अम्ब, कोऽयं व्यतिकरः' इत्यपृच्छत् । भट्टिनी गतमुदन्तमास्यत्-काश्यपीश्वरः शैलूष इव हर्षामर्षोत्कर्षस्थामवस्थामनुभवन्निखिलान्तःपुरपुरन्ध्रीजनवन्धमानपादपनां पन्नां तैस्तैः सतीजनप्रहादनवचनैः सम्मानसन्निधानैरलङ्कारदानैश्चोपचर्य, प्रवेश्य च वेदविद्विजोह्यमानकीरथारूढां वेश्म', पुनः 'अरे निहीन, किमिह नगरे न सन्ति सकललोकसाधारणभोगाः सुभगाः सीमन्तिन्यः, येनैवमाचरः। कथं च दुराचार, एवमाचरन्नात्र विलायं विलीनोऽसि । तदिदानीमेव यदि भवन्तं तृणाङ्कुरमिव तृणेमि तदा न बहुकृतमपकृतं स्यात्' इति निर्वरं निर्भय॑ दुर्नयगरभुजङ्ग कडारपिङ्ग कुट्टिनीमनोरथातिथिसत्रिणमुग्रसेनमन्त्रिणं च निखिलजनसमक्षमाक्षारणापूर्वकं प्रावासयत् । दुष्प्रवृत्तानङ्गमायह उसको जन्म देने वाली पक्षिणी है।' राजा-(बहुत देरतक देखकर और स्वरसे पहचान कर ) पुरोहित ! यह किञ्जल्प पक्षी नहीं है, यह तो कडारपिक है । यह भी पक्षिणी नहीं है किन्तु कुट्टिनी तडिल्लता है। पुष्य-स्वामी ! इनको पहचानने मन्त्रीजी बहुत प्रवीण हैं। राजाने मन्त्रीसे उन्हें पहचाननेके लिए कहा तो मन्त्री पृथ्वीको देखता रह गया, मानो पृथ्वीमें समा जाना चाहता है। राजा-पुष्य ! मन्त्रीको रहने दो, तुम सब समाचार कहो। पुण्य-स्वामी ! मेरी पत्नी ही यह काम कर सकनेमें समर्थ है। राजाने पद्माको बुलाकर कहा-"माता! यह क्या मामला है ?" पद्माने सब बीता वृत्तान्त सुना दिया । वृत्तान्त सुनते-सुनते कभी राजा नटकी तरह प्रसन्न होता था और कभी क्रोधसे तमतमा उठता था। सब सुनकर अन्तःपुरकी स्त्रियोंने पद्माके पैर पड़े और राजाने सती स्त्रियोंके योग्य आनन्ददायक वचनोंसे और आदरसूचक वस्त्राभरणके प्रदानसे पद्माको सम्मानित करके पालकीमें बैठाकर उसके घर पहुंचा दिया । फिर कुट्टिनी और कडारपिङ्गका तिरस्कार करते हुए बोला-"अरे नीच ! क्या इस नगरमें वेश्याएँ नहीं हैं जो तूने ऐसा आचरण किया । अरे दुराचारी ! ऐसा करते हुए तू मर क्यों नहीं गया ? अतः यदि इसी समय मैं तुझे तिनके-की तरह नष्ट कर डालूँ तो यह तेरा बहुत अपकार नहीं कहलायेगा।" इस प्रकार बुरी तरहसे तिरस्कार करके दुराचारी कडारपिङ्गको और कुट्टिनीके साथी उग्रसेन मन्त्रीको सब लोगोंके सामने फटकारते हुए देशसे निर्वासित कर दिया । १. प्रवेशं कर्तुमिच्छरिव । २. तिष्ठतु तावदयं मन्त्री । ३. नटाचार्यवत् । ४. गृहम् । ५. विनाशं गत्वा किन्न विनष्टोऽसि । ६. हिनस्मि । ७. यजमानम् । ८. आक्रोश। ९. निर्घाटितः । १०. अनङ्ग एव मातङ्गो यस्य ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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