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________________ १६८ सोमदेव विरचितं [कल्प ३१, श्लो० ४२७'विधुर्गुरोः कलत्रेण गोतमस्यामरेश्वरः। 'संतनोश्चापि दुश्चर्मा समगंस्त पुरा किल ॥४२७॥' भट्टिनी-आर्ये, एवमेव । यतः 'स्त्रीणां वपुर्वन्धुभिरग्निसाक्षिकं परत्र विक्रीतमिदं न मानसम् । स एव तस्याधिपतिर्मतः कृती विनम्भगर्भा ननु यत्र निर्वृतिः ॥४२८॥' धात्री-पुत्रि, तर्हि श्रूयताम् । त्वं किलैकदा कस्यचित्कुसुम किंसारुनिर्विशेषवपुषः पुराङ्गनाजनलोचनोत्पलोत्सवामृतरोचिषः प्रासादपरिसरविहारिणी वीक्षणपथानुसारिणी सती कौमुदीव हृदयचन्द्रकान्तानन्दस्यन्दसंपादिनी अभः। तत्प्रभृति ननु तस्य मदनसुन्दरस्य यूनः प्रत्यवसितवसन्तश्रीसमागमसमयस्य "पुष्पन्धयस्येव रसालमार्यामिव भवत्यां महान्ति खलु मन्दमकरन्दास्वादन दोहदानि, नितान्तं चिन्ताचक्रपरिक्रान्तं स्वान्तम् , प्रसभं गुणस्मरणपरिणामाधिकरणमन्तःकरणम्, अनवरतं रामणीयकानुकीर्तनसंकेतं चेतः, प्रविकसत्कुसुमविलासोचितसंनिहितेऽप्यन्यस्मिल्लताकान्ताजने महानुढेगः, पिशाचच्छलितस्येवास्थानानुबन्धः, सातोन्मादस्येव विचित्रोपलम्भः क्रियाप्रारम्भः, स्कन्दगदगृहीतस्येव प्रतिवासरं कायावतारः, स्मराराधनप्रणीतप्रणिधानस्येवेन्द्रियेषु सन्नता जडता प्राणेषु "चाद्यश्वीनपथाकथा । अपि च 'अनवरतजलान्दिोलनस्पन्दमन्दै रतिसरसमृणालीकन्दलैश्चन्दनाः । चन्द्रमाने अपनी गुरुपत्नीसे, इन्द्रने गौतमकी पत्नी अहिल्यासे और महादेवने संतनु राजाकी पत्नीसे संगम किया था ॥४२७॥ पद्मा-माता आपका कहना ठीक है; क्योंकि बन्धु-बान्धव अग्निकी साक्षी पूर्वक स्त्रीका शरीर दूसरेको बेच देते हैं, मन नहीं। उसका पति तो वही भाग्यशाली होता है जिससे उसे विश्वासके साथ ही साथ सुरत भी मिलता है ।।४२८॥ धाय-पुत्री ! तो सुन एक दिन तू अपने महलके ऊपर घूमती थी। फूलकी पंखुड़ीकी तरह कोमल और नगरकी स्त्रियोंके नयन कुमुदोंको विकसित करनेके लिए चन्द्रमाके तुल्य किसी युवाकी दृष्टि तेरे ऊपर पड़ गयी । जैसे वसन्तका समागम होनेपर षौंरा आमकी मंजरीका रस पान करनेके लिए लालायित रहता है वैसे ही उस दिनसे कामदेवकी तरह सुन्दर वह युवा तेरे रसका पान करनेके मनोरथ बाँधता रहता है। उसी दिनसे उसका चित्त तेरे लिए चिन्तित है, सदा तेरे गुणोंको स्मरण करता है, तेरी सुन्दरताका बखान करता है, विलासके योग्य अन्य स्त्रियोंके पास आनेपर भी उनकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता। भूताविष्टकी तरह एक स्थानपर नहीं बैठता । पागलोंकी तरह विचित्र काम करता है। क्षयरोगके रोगीकी तरह दिन-दिन कृश होता जाता है । इन्द्रियाँ ऐसी क्षीण हो गयी है मानो कामदेवकी आराधनाके लिए उसने ध्यान लगाया है । आज-कलमें ही उसके प्राण पखेरू उड़ना चाहते हैं। तथा सदा जलसे भीगे हुए पंखेसे / १. शांतनुराज्ञः । २. हरः । ३. कामः । ४. संजात । ५. भ्रमरस्य । ६. आम्र । ७. -स्वादने दोआ० म०द०। ८. स्कन्ध -आ० मु० । क्षयरोग । ९. क्षीणता । १०. अद्य कल्ये वा प्राणा यास्यन्ति ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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