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________________ १६२ सोमदेव विरचित [कल्प ३१, श्लो० ४०८. मदनोद्दीपनवृत्तैर्मदनोहीपनै रसैः। मदनोद्दीपन शामंदमात्मनि नाचरेत् ॥४०८॥ 'हव्यैरिव दुतप्रीतिः पाथोभिरिव नीरधिः।। तोषमेति पुमानेष न भोगैर्भवसंभवैः ॥४०६॥ विषवद्विर्षयाः पुंसामापाते मधुरागमाः। अन्ते विपत्तिफलदास्तत्सतामिह को ग्रहः ॥४१०॥ बहिस्तास्ताः क्रियाः कुर्वन्नरः संकल्पजन्मवान् । भावाप्तावेव निर्वाति क्लेशस्तत्राधिकः परम् ॥४११॥ 'निकामं कामकामात्मा तृतीयाँ प्रकृतिर्भवेत । अनन्तवीर्यपर्यायस्तानारतसेवने ॥४१२॥ सर्वा क्रियानुलोमा स्यात्फलाय हितकामिनाम् । अपरत्रार्थकामाभ्यां यत्तौ न स्तां तदर्थिषु ॥४१३॥ तयामय समः कामः सर्वदोषोदयद्युतिः। "उत्सूत्रे तत्र मानां कुतः श्रेयः समागमः ॥४१४॥ देहद्रविणसंस्कारसमुपार्जनवृत्तयः। जितकामे पृथा सर्वास्तत्कामः सर्वदोषभाक् ॥४१५।। अतः कामोद्दीपन करनेवाले कार्योंसे, कामोद्दीपन करनेवाले रसोंके सेवनसे और कामोद्दीपन करनेवाले शास्त्रोंके श्रवण या पठनसे अपनेमें कामका मद नहीं लाना चाहिए ।।४०८॥ जैसे हवनकी सामग्रीसे अग्नि और जलसे समुद्र कभी तृप्त नहीं होते। वैसे ही यह पुरुष सांसारिक भोगोंसे कभी तृप्त नहीं होता ॥४०९॥ ये विषय विषके तुल्य हैं। जब आते हैं तो प्रिय लगते हैं किन्तु अन्तमें विपत्तिको ही लाते हैं। अतः सज्जनका विषयोंमें आग्रह कैसे हो सकता है ॥४१०॥ तरह-तरहकी बाह्य क्रियाओंको करता हुआ कामी मनुष्य रति सुखके मिलने पर ही सुखी होता है। किन्तु इसमें क्लेश ही अधिक होता है सुख तो नाम मात्र है ॥४११॥ जो अत्यन्त कामासक्त होता है वह निरन्तर कामका सेवन करनेसे नपुंसक हो जाता है और जो निरन्तर ब्रह्मचर्यका पालन करता है वह अनन्त वीर्यका धारी होता है ॥४१२॥ जो अपना हित चाहते हैं उनकी सभ अनुलोम क्रियाएँ फलदायक होती हैं। किन्तु अर्थ और कामको छोड़कर । क्योंकि जो अर्थ और कामकी अभिलाषा करते हैं उन्हें अर्थ और कामकी प्राप्ति नहीं होती, अतः उन्हें अर्थ और कामकी प्राप्ति होने पर भी सदा असन्तोष ही रहता है ॥४१३।। काम क्षय रोगके समान सब दोषों को उत्पन्न करता है। उसका आधिक्य होने पर मनुष्योंका कल्याण कैसे हो सकता है ? ॥४१४॥ जिसने कामको जीत लिया उसका देहका संस्कार करना, धन कमाना आदि सभी व्यापार व्यर्थ हैं; क्योंकि काम ही इन सब दोषोंकी जड़ है ।।४१५॥ -- -- १. देवदेयद्रव्यैः । 'न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवमव भूय एवाभिवर्धते । २. अग्निर्न तोषमेति । ३. जलैः । ४. "किंपाक फलसम्भोगसन्निभं तद्धि मैथुनम् । आपातमात्ररम्यं स्याद्विपाकेऽत्यन्तभीतिदम् ॥१०॥ -ज्ञानार्णव पृ० १३४ । ५. रतिरसप्राप्तावेव सुखी भवति किन्तु तत्र सुखं स्तोकम् । ६. अतीव कामेच्छावान । ७. नपंसकः । ८. ब्रह्मचर्यस्य । ९. 'यत्कारणात्तावर्थकामो न स्तां न भवेताम, केषु ? तदर्थिषु अर्थकामवाञ्छकेषु । कोऽर्थः ? तेषु तृप्तिन भवतीति भावार्थः । १०. क्षयरोगसदृशः । ११. आधिक्ये । १२. देहस्य संस्कारवृतिः द्रविणस्योपार्जनवृत्तिः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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