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________________ १६० सोमदेव विरचित [कल्प ३०, श्लो०४०२मानवं व्यासवासिष्ठं वचनं वेदसंयुतम् । अप्रमाणं तु यो ब यात्स भवेद्ब्रह्मघातकः ॥४०२॥ 'पुराणं मानवो धर्मः साङ्गो वेदश्चिकित्सितम्। आज्ञासिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः ॥४०३॥ इति मनु-मरीचि-मतङ्गप्रभृतयश्च सवर्षटकारमजद्विजगजवाजिप्रभृतीन्देहिनो जुङ्गति । तदेवं श्रुतिशतैवाणिज्यजित्योपजीविनामीतोः पर्वतो व्यपोहति । कालासुरः पुनरालभ्य॑मानान् प्राणिनः साक्षाद्विमानारूढान्स्वर्गे सांवर्या पर्यटतो दर्शयति । मनुप्रमुखाश्च मुनयः प्रभावयन्ति। ततो मायाप्रदर्शितत्रिदशवेश्मप्रवेशादिलोभे सआते सकलजनक्षोभे सप्रत्यासन्ननरकनगरः सगरः, स च श्वभ्रविभ्रमोचितस्थितिर्विश्वभूतिस्तदुपदेशात्तांस्तान्सत्त्वान् हत्वा प्सात्त्वा च दुरन्तदुरितचित्तचेतसौ मखमिषात्कालासुरेण स्मारितपूर्वभवागसौ वीतिहोत्रा'. तिविहितविचित्रवधरहसौ विचित्राया धरियाद्राधीयो दुःखदथुमन्थरं तलमगाताम् । पर्वतोऽप्यग्नायीपतिविजये"जठरधनञ्जये च हव्यकव्यकर्मभिः समाचरितसमस्तसत्त्वसंहारः कालासुरतिरोधानविधुरविधिसारस्तद्विरहातकशोक शोचिःक्लेशकृश्यच्छरीरः कालेन "जीनजीवितप्रचारः सप्तमरसावसरः समपादि । मनु, व्यास, वसिष्ठ आदि ऋषियोंके वचनोंको और वैदिक वचनोंको जो अप्रमाण बतलाता है वह ब्रह्मघाती है ।।४०२॥ पुराण, मानवधर्म मनुस्मृति, साङ्गवेद और आयुर्वेद ये चार स्वयं प्रमाण हैं । इन्हें युक्तियोंसे खण्डित नहीं करना चाहिए ॥४०३॥ इस तरहकी आज्ञाएँ पर्वत देता था । और मनु, मरीचि, मतङ्ग आदि ऋषि 'स्वाहा' शब्दके साथ बकरा, द्विज, हाथी, घोड़ा वगैरह प्राणियोंसे होम करते थे । इस प्रकार वेदसे जीविका करनेवाले ब्राह्मणोंमें, शस्त्रसे जीविका करनेवाले क्षत्रियोंमें, व्यापारसे जीविका करनेवाले वश्योंमें और खेती आदिसे जीविका करनेवाले कृषकोंमें कालासुरने जो बीमारियाँ फैलायी थीं उन्हें पर्वत दूर करता था, और कालासुर मारे गये प्राणियोंको अपनी मायाके द्वारा विमानमें सवार कराकर स्वर्गको जाते हुए दिखाता था। मनु वगैरह मुनि इससे दूसरोंको प्रभावित करते थे। इस प्रकार जब सब लोगोंमें मायाके द्वारा दिखलाये गये स्वर्ग गमनके लोभसे हलचल मच गयी तो नरकगामी सगर और विश्वभूति पुरोहितने भी कालासुरके उपदेशसे बहुतसे प्राणियोंका वध किया और उन्हें खाया। इससे उनका चित्त पापमें लिप्त हो गया। फिर कालासुरने उन दोनोंके पूर्व जन्ममें किये गये अपराधका स्मरण कराकर यज्ञके बहानेसे उन दोनोंको यज्ञकी अग्निमें होम दिया, और वे दोनों मरकर तीसरे नरकमें चले गये । पर्वतने भी अग्निको तिरस्कृत करनेवाली अपनी जठराग्निमें देवताओं और पितरोंकी तृप्तिके बहाने समस्त प्राणियोंका संहार कर डाला । कालासुर तो अपना काम करके अन्तर्धान हो गया। अतः उसके बिना उसकी सब विधि फीकी पड़ गयी। कालासुरके विरह रूपी संतापके शोकसे उसकी दशा शोचनीय हो गयी। क्लेशसे उसका शरीर कृश हो गया। अन्तमें मरण करके वह सप्तम नरकमें उत्पन्न हुआ। १. मनुस्मृति १२, ११०। २. स्वाहासहितम् । ३. श्रुतजीविनां विप्राणां, शस्त्रजीविनां क्षत्रियाणां, वाणिज्यहलजीविनां वणिजां या ईतयः कालासुरेण मायया कृताः ताः पर्वतः कालासुरमायया स्फेटयति । ४. हिंस्यमानान् । ५. मायया । ६. प्रभावनां कुर्वन्ति । ७. समीपनरकावासः । ८. कालासुर । ९. भक्षित्वा । १०. सुलसापहारदोषो। ११. अग्नि । १२. बालुकाप्रभायाः । १३. दीर्घतरम् । १४. परितापेन मन्दगमनसहितम (?)। १५. गतौ। १६. अग्नितिरस्कारके। १७. उदराग्नौ। १८. देवदेयं । १९. पितृदेयं । २०. शोकाग्नि । २१. क्षीण । २२. सप्तमपृथिवी। २३. संजातः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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