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________________ १८८ सोमदेव विरचित [कल्प ३०, श्लो० ३६७धर्मबुया साधुमध्ये अजैर्यष्टव्यमितीदं वाक्यमशेषकल्मषनिषेक्योऽन्यथोपन्यस्यमानो नारदेनापादितवयमस्खलनः सन् एतावद्विपत्तिस्थामवस्थामवापम् ।' कालासुर:-'पर्वत, मा शोच । मुञ्च त्वमशेषं धिषणाकलुषम् । अङ्ग, साधु सम्बोधयात्मानम् । न खलु निरीहस्य नरस्यास्ति काचिन्मनीषितावाप्तिः। तदलं हन्तं हृदयदाहानुगेनावेगेन । हहो पुत्र पर्वत, यथा स्वकीयसंकेता ब्राह्मगोसवाश्वमेधसौत्रामणिवाजपेयराजसूयपुण्डरीकप्रभृतीनां सप्ततन्तूनां प्रतिपादकानि वाक्यानि विरचय्य अन्तरान्तरा वेदवचनेषु निवेशय । वत्स, मयि भूर्भुवःस्वस्त्रयीविपर्यासनसमर्थमन्त्रमाहात्म्ये, त्वयि च तरसासवसवित्रीप्रवृत्तिहेतुश्रुतिगीतिसमभ्यस्तसात्म्ये, किं नु नामेहासाध्यम्' इत्युत्साह्य स्वयं विद्यावष्टम्भसृष्टाभिरष्टाभिरैपीतिभिरुपयमाणजनपदहृदयमयोध्याविषयमागत्य नगरबाहिरिकायां स देवश्चतुराननोऽभूत् । 'अध्वर्युः पर्वतः समासीत् । मायामयसृष्टयः पिङ्गलमनु-मतङ्ग-मरोचि-गौतमादयश्च ऋत्विजोऽजनिषत । तत्र अतिधृतिश्चतुर्भिर्वदनरुपदिशति । पर्वतस्तु यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा। यज्ञो हि भूत्यै सर्वेषां तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ॥३७॥ भी मुझ दुरात्माने अपने व्यसनकी पुष्टि के लिए उसे बदल कर अन्यथा रूपसे कहा । नारदने मेरी इस गलतीको पकड़ लिया । बस, उसीसे मेरी यह दुर्दशा हुई है।' कालासुर- 'पर्वत ! रंज मत कर, और इस सब बुद्धि विकारको दूर कर' अपनेको सम्बोध । जो मनुष्य निरीह है उसकी मनोवाञ्छा पूरी नहीं होती। अतः हृदयको जलानेवाले शोकको छोड़। और पुत्र पर्वत ! अपने संकेतसे चिह्नित ब्राह्ममेध, गोमेध, अश्वमेध, सौत्रामणि, वाजपेय, राजसूय, पुण्डरीक आदि यज्ञोंके प्रतिपादक वाक्योंको रचकर वेदमें जगह-जगह मिला दो। पुत्र ! मेरेमें 'भूर्भुवः स्वः' इत्यादि मन्त्रको बदलनेकी सामर्थ्यके होते हुए और मांस-मदिरा आदिमें प्रवृत्ति करानेवाले वेदमन्त्रोंकी रचनामें सिद्धहस्त तुम्हारे होते हुए ऐसा कौन काम है जो हम नहीं कर सकते।' इस प्रकार पर्वतको उत्साहित करके उस कालासुरने अपनी विद्याके बलसे अतिवृष्टि आदि आठ ईतियोंको समस्त देशमें फैला दिया । तथा आप अयोध्या नगरीमें आकर ब्रह्माका रूप धारण करके नगरके बाहर बैठ गया। पर्वत यजुर्वेदका ज्ञाता पुरोहित बना। मायामयी पिंगल, मनु, मतङ्ग, मरीचि, गौतम वगैरह होता बन गये । ब्रह्माजी चारों मुखोंसे उपदेश देते थे। और पर्वत आदेश देता था ___ ब्रह्माजीने स्वयं यज्ञके लिए ही पशुओंकी सृष्टि की है। यज्ञ सबकी समृद्धि के लिए है इसलिए यज्ञमें किया जानेवाला पशुवध वध नहीं है ॥ ३९७ ॥ १. शत्रुलोकोपरि निस्पृहस्य । २. हन्त हर्षेऽनुकम्पायां वाक्यारम्भविषादयोः । ३. शोकेन । ४. यज्ञानाम् । ५. मध्ये । ६. नु प्रच्छायां विकल्पे च वित च । नाम प्रकाश्यसंभाव्य क्रोधोपगमकुत्सने । ७. अतिवृष्टि रनावृष्टिर्मूषकाः शलभाः शुकाः । स्वचक्रपरचक्रं च सप्तता ईतयः स्मृताः ॥ ८. यजुर्वेदज्ञाता । ९. ब्रह्मा।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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