SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७० सोमदेव विरचित [कल्प २८, श्लो० ३६२दुःखागमानुमेयप्रभावं दैवमेव शरणम्' इति विगणेय्य स्वयंवरार्थ भीम-भीष्म-भरत-भागसङ्ग सगर-सुबन्धु-मधुपिङ्गलादीनामवनिपतीनामुपदानुकूलं मूलं प्रस्थायाम्बभूवे । अत्रान्तरे मगधमध्यप्रसिद्धयाराध्यायामयोध्यायां नरवरः सगरो नाम । स किल लास्यादिविलासकौशलसरसायाः सुलसायाः कर्णपरम्परया श्रुतसौरप्यातिशयो मनागुपरमत्तारुण्यलावण्योदयः प्रयोगेण तामात्मसाचिकीर्षुस्तौर्यत्रिकसूत्रे प्रतिकर्मविकल्पेषु संभोगसिद्धान्ते विप्रश्नविद्यायां स्त्रीपुरुषलक्षणेषु कथाख्यायिकाख्यानप्रवाहीकास्वपरासु च तासु तासु कलासु परमसंवीणतालताधरित्री मन्दोदरी नाम धात्री ज्योतिषादिशास्त्रनिशितमतिप्रसूति विश्वभूतिं च बहुमानसंभावितमनसं पुरोधसं तत्र पुरि प्राहिणोत् । "विशिकाशयशार्दूलदरी" मन्दोदरी तां पुरमुपगम्य परप्रतारणप्रगल्भमनीषा कृत"कात्यायिनीवेषा तत्तत्कलावलोकनकुतूहलमयोधनधरापालं निजनाथार्थसिद्धिपरवती" रजितवती सती'शुद्धान्तोपाध्यायी भूत्वा सुलसां सगरे संगरं प्राहयामास । तथा बकोटवृत्तिवेधाः स पुरोधाश्च तैस्तैरादेशैस्तस्य नृपस्य महादेव्याश्च वशीकृतचित्तवृत्तिः कुण्टे षष्टिरशीतिः स्यादेकाक्षे बधिरे शतम् । वामने च शतं विंशं दोषाः पिङ्गे त्वसंख्यया ॥३२॥ जिस किसी महाभागके भाग्यमें भोगनेके योग्य है उसीका यह होना चाहिए। इस विषयमें सब शरीरधारियोंका दैव ही शरण है और दैवका प्रभाव अचानक सुख-दुःखके आगमनसे अनुमेय है।' ऐसा जानकर उसने स्वयंवरके लिए भीम, भीष्म, भरत, भाग, संग, सगर, सुबन्धु और मधुपिंगल वगैरह राजाओंके पास भेट पूर्वक पत्र भिजवा दिये। इसी बीचमें एक दूसरी घटना घटी। अयोध्याके राजा सगरने कानों-कानों नृत्य आदि कलामें कुशल सुलसाके सौन्दर्यकी चर्चा सुनी। इस राजाका तारुण्य अपने लावण्यके साथ थोड़ा ढल चला था । अतः उसने उसे उपायसे अपनानेके लिए ज्योतिष आदि शास्त्रोंमें प्रवीण विश्वभूति नामक पुरोहितके साथ मन्दोदरी नामकी धायको सुलसाकी नगरीमें भेजा। वह धाय सब कलाओंमें प्रवीण थी, गाना-बजाना और नाचना जानती थी। साज-शृङ्गार करनेमें चतुर थी। सम्भोगके सिद्धान्त, सामुद्रिक विद्या, स्त्री पुरुषके लक्षण, कथा-कहानी और पहेलीमें पूरी पण्डिता थी। उस नगरमें पहुँचकर दूसरोंको ठगनेमें पटु उस धायने प्रौढ़ा स्त्रीका वेष बनाया और अपने स्वामीका प्रयोजन सिद्ध करनेके लिए तरह-तरहकी कलाएँ दिखाकर राजा अयोधनको प्रसन्न कर लिया तथा उसके अन्तःपुरमें अध्यापिका बनकर सुलसासे यह प्रतिज्ञा करा ली कि वह सगरको ही वरण करेगी । बगुला भगत पुरोहितने भी तरह-तरहके आदेशोंसे राजा और रानीका मन अपने वशमें कर लिया। उसने स्वयं श्लोक रच-रचकर राजा-रानीको सुनाये जिनका भाव इस प्रकार था टुण्टेमें ६० दोष होते हैं, कानेमें अस्सी और बहरेमें सौ दोष होते हैं। बौनेमें एक सौ बीस दोष होते हैं। किन्तु जिसकी आँखं पीतवर्णकी होती हैं, उसमें तो अगणित दोष होते १. ज्ञात्वा । २. भेटपूर्वकं । ३. लेखम् । ४. तेन भुभुजा । ५. केनाऽप्युपायेनेत्यर्थः । ६. मण्डनाभरणादिषु । ७. होराक्षरादिभिः परचित्तज्ञानम् । ८. 'कथा चित्रार्थगा ज्ञेया, ख्यातार्था ख्यायिका मता। दृष्टान्तस्योक्तिराख्यानं प्रवाहीका प्रहेलिका।' ९. तीक्ष्ण । १०. परवञ्चनोपाय । ११. व्याघ्रगुहा । १२. अर्द्धवृद्धा । १३. सगरनृप । १४. तत्पराम् । १५. अन्तःपुर। १६. प्रतिज्ञां ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy