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________________ wwwwwwwwwwww सोमदेव विरचित [कल्प २८, श्लो० ३८४ति। सत्यमप्यसत्यं किंचिद्यथार्धमासतमे दिवसे तवेदं देयमित्यास्थाय मासतमे संवत्सरतमे वा दिवसे ददातीति । सत्यसत्यं किंचिद्यवस्तु यहेशकालाकारप्रमाणं प्रतिपन्नं तत्र तथैवाविसंवादः । असत्यासत्यं किंचित्स्वस्यासत्संगिरते कल्ये दास्यामोति। तुरीयं वर्जयेन्नित्यं लोकयात्रा प्रये स्थिता।' सा मिथ्यापि न गीमिथ्या या गुर्वादिप्रसादिनी ॥३८४॥ न स्तूयादात्मनात्मानं न परं परिवादयेत् । .. न सतोऽन्यगुणान् हिंस्यानासतः स्वस्य वर्णयेत् ॥३५॥ तथा कुर्वन्प्रजायेत नीचैर्गोत्रोचितः पुमान् । उच्चैोत्रमवाप्नोति विपरीतकृतेः कृती ॥३८६॥ यत्परस्य प्रियं कुर्यादात्मनस्तत्प्रियं हि तत् । अतः किमिति लोकोऽयं पराप्रियपरायणः ॥३८७॥ यथा यथा परेवेतञ्चतो वितनुते तमः। और न कपड़ा बुना जाता है किन्तु पके हुए को भात कहते हैं, और बुन जानेपर कपड़ा कहलाता है, फिर भी लोकव्यवहारमें ऐसा ही कहा जाता है इसलिए इस तरहके वचनोंको सत्य मानते हैं। इसी तरह कोई वचन सत्य होते हुए भी असत्य होता है। जैसे-किसीने वादा किया कि पन्द्रह दिनमें मैं तुम्हें अमुक वस्तु दे दूँगा । किन्तु पन्द्रहवें दिन न देकर वह एक मासमें या एक वर्षमें देता है । यहाँ चूंकि उसने वस्तु दे दी इस लिए उसका कहना सत्य है किन्तु समयपर नहीं दी इस लिए सत्य होते हुए भी असत्य है। जो वस्तु जिस देशमें, जिस कालमें, जिस आकारमें और जिस प्रमाणमें जानी है उसको उसी रूपमें कहना सत्य-सत्य है । जो वस्तु अपने पास नहीं है उसके लिए ऐसा वचन देना कि मैं तुम्हें कल दूंगा असत्य-असत्य वचन है। इनमेंसे चौथे असत्य असत्य वचनको कभी नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि लोकव्यवहार शेष तीन प्रकारके वचनोंपर ही स्थित है। जो वचन गुरुजनोंको प्रसन्न करनेवाला है, वह मिथ्या होते हुए भी मिथ्या नहीं है ॥ ३८४ ॥ न स्वयं अपनी प्रशंसा करनी चाहिए और न दूसरोंकी निन्दा करनी चाहिए । दूसरोंमें यदि गुण हैं तो उनका लोप नहीं करना चाहिए और अपने यदि गुण नहीं हैं तो उनका वर्णन नहीं करना चाहिए कि मेरेमें ये गुण हैं ॥ ३८५ ॥ ऐसा करनेसे मनुष्य नीच गोत्रका बन्ध करता है , और उससे विपरीत करनेसे अर्थात् अपनी निन्दा और दूसरों की प्रशंसा करनेसे तथा दूसरोंमें गुण न होनेपर भी उनका वर्णन करनेसे और अपनेमें गुण होते हुए भी उनका कथन न करनेसे उच्चगोत्रका बन्ध करता है ॥ ३८६ ॥ जो दूसरोंका हित करता है वह अपना ही हित करता है फिर भी न जाने क्यों यह संसार दूसरोंका अहित करनेमें ही तत्पर रहता है ॥ ३८७ ।। जैसे-जैसे यह चित्त दूसरोंके विषयमें १. 'यद्वस्तु यद्देशकालप्रमाकारं प्रतिश्रुतम् । तस्मिस्तथैव संवादि सत्यसत्यं वचो वदेत् ॥४१॥' -सागारधर्मामृत, अ० ४। २. 'लोकयात्रानुरोधित्वात्सत्यसत्यादिवाक्त्रयम् । ब्रूयादसत्यासत्यं तु तद्विरोधान्न जातुचित् ॥४०॥'-सागारधर्मा०, अ०४ । ३. 'परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्धावने च नीचंगोत्रस्य ॥२५॥ तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥२६॥' -तत्त्वा० सू० ६ अ० । 'सा मिथ्या न भवेन्मिथ्या या पत्यादिप्रसादिनी। न स्तुयादात्मनात्मानं न परं परिवादयेत् ।।८६।। -प्रबोधसार ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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