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________________ १५२ सोमदेव विरचित [कल्प २६, श्लो० ३४१तथा च लोकोक्तिः "एकस्मिन्मनसः कोणे पुंसामुत्साहसालिनाम् । अनायासेन समान्ति भुवनानि चतुर्दश" ॥३४६॥ भूपयःपवनाग्नीनां तृणादीनां च हिंसनम् । यावत्प्रयोजनं स्वस्य तावत्कुर्यादेजन्तु यत् ॥३४७॥ ग्रामस्वामिस्वकार्येषु यथालोकं प्रवर्तताम। गुणदोषविभागेऽत्र लोक एव यतो गुरुः ॥३४८॥ दर्पण वा प्रमादाद्वा द्वीन्द्रियादिविराधने। प्रायश्चित्तविधि कुर्यायथादोष यथागमम् ॥३४॥ इसी विषयमें एक कहावत भी है 'उत्साही मनुष्योंके मनके एक कोनेमें बिना किसी प्रयासके चौदह भुवन समा जाते हैं ॥ ३४६ ॥ भावार्थ-पहले बतला आये हैं कि जो काम अच्छे भावोंसे किया जाता है उसे अच्छा कहते हैं और जो काम बुरे भावोंसे किया जाता है उसे बुरा कहते हैं। अतः वचनकी और कायकी क्रिया तभी अच्छी कही जायेगी जब उसके कर्ताके भाव अच्छे हों। अच्छे इरादेसे बच्चोंको पीटना भी अच्छा है और बुरे इरादेसे उन्हें मिठाई खिलाना भी अच्छा नहीं है। अतः मनकी खराबीसे वचनकी और कायकी क्रिया खराव कही जाती है और मनकी अच्छाईसे अच्छी कही जाती है । इसीलिए मनकी शक्तिको अचिन्त्य बतलाया है। मन एक ही क्षणमें दुनिया भर की बातें सोच जाता है किन्तु जो कुछ वह सोच जाता है उसे एक क्षणमें न कहा जा सकता है और न किया जा सकता है । अतः मनका सुधार करना चाहिए । पृथ्वी, जल, हवा, आग और तृण वगैरहकी हिंसा उतनी ही करनी चाहिए जितनेसे अपना प्रयोजन हो ॥३४७॥ ___ भावार्थ-जीव दो प्रकारके बतलाये हैं त्रस और स्थावर । त्रस जीवोंकी हिंसा न करनेके विषयमें ऊपर कहा गया है। स्थावर जीवोंकी भी उतनी ही हिंसा करनी चाहिए जितनेके बिना सांसारिक काम न चलता हो। व्यर्थ जमीनका खोदना, पानीको व्यर्थ बहाना, व्यर्थ हवा करना व आग जलाना और बिना जरूरतके पेड़-पत्तोंको तोड़ना आदि काम नहीं करना चाहिए । आशय यह है कि मिट्टी, पानी, हवा, आग और सब्जीका भी दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। __ नागरिक कार्योंमें, स्वामीके कार्यों में और अपने कार्योंमें लोकरीतिके अनुसार ही प्रवृत्ति करनी चाहिए, क्योंकि इन कार्योंकी भलाई और बुराईमें लोक ही गुरु है । अर्थात् लौकिक कार्योंको लोकरीतिके अनुसार ही करना चाहिए ॥३४॥ प्रायश्चित्तका विधान मदसे अथवा प्रमादसे द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवोंका घात हो जानेपर दोषके अनुसार आगममें बतलायी गयी विधिपूर्वक प्रायश्चित्त करना चाहिए ॥३४९॥ १. -दजन्तुजित्-सागारधर्मा० पृ० १२२.। -दयं तु यत् मु० ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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