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________________ -३२५ ] उपासकाध्ययन अतिप्रसङ्गहानाय तपसः परिवृद्धये । अन्तरायाः स्मृता सबितबीजविनिक्रियाः ॥३२४॥ अहिंसावतरक्षार्थ मूलव्रतविशुद्धये। निशायां वर्जयेद्भुक्तिमिहामुत्र च दुःखदाम् ॥३२५॥ चमड़ा, कुत्ता वगैरहसे छू जाना, भोजनके पदार्थोंमें 'यह मांसकी तरह है' इस प्रकारका बुरा संकल्प हो जाना, भोजनमें मक्खी वगैरहका गिर पड़ना, त्याग की हुई वस्तुको खा लेना, मारने, काटने, रोने, चिल्लाने आदिकी आवाज सुनना, ये सब भोजनमें विघ्न पैदा करनेवाले हैं। अर्थात् उक्त अवस्थाओंमें भोजन छोड़ देना चाहिए ॥३२३॥ ये अन्तराय व्रतरूपी बीजकी रक्षाके लिए बाड़के समान हैं। इनके पालनेसे अतिप्रसङ्ग दोषकी निवृत्ति होती है और तपकी वृद्धि होती है ॥३२४॥ भावार्थ-भोजन करते समय यदि ऊपर कही हुई चीजोंको देख ले या उनसे छू जाये या ऊपर बतलायी हुई बातोंमें से कोई और बात हो जाये तो भोजन छोड़ देना चाहिए। क्यों कि उस अवस्थामें भी यदि भोजन नहीं छोड़ा जायेगा तो बुरी वस्तुओंसे घृणा धीरे-धीरे दूर हो जायेगी और उसके दूर होनेसे मन कठोर होता जायेगा, बुरी वस्तुओंके प्रति अरुचि हटती जायेगी और फिर एक समय ऐसा भी आ सकता है जब उन बुरी वस्तुओंमें प्रवृत्ति होने लगे। इस तरह यह अतिप्रसङ्ग दोष उपस्थित हो सकता है। इससे बचनेके लिए अन्तरायोंका पालन करना जरूरी है । तथा ऐसी अवस्थामें भोजनके छोड़ देनेसे तपकी वृद्धि भी होती है, क्योंकि इच्छाके रोकनेको तप कहते हैं। भोजनके बीचमें अन्तरायके आ जानेपर भी भूख तो भोजन चाहती है अतः मन भोजनके लिए लालायित रहता है। किन्तु समझदार व्रती भूखकी परवाह न करके भोजन छोड़ देता है और इस तरह वह खानेकी इच्छापर विजय पाकर अपने तपको बढ़ाता है । अतः अन्तरायोंका पालना आवश्यक है। वे व्रतरूपी बीजकी बाड़के समान हैं। जैसे खेतमें बीज बोकर उसकी रक्षाके लिए चारों ओर काँटे वगैरहकी बाड़ लगा देते हैं उससे कोई पशु वगैरह भीतर घुसकर खेतीको नहीं चर पाता ; वैसे ही अन्तरायोंका पालन भी व्रतोंकी रक्षा करता है। रात्रि-भोजन त्याग अहिंसा व्रतकी रक्षाके लिए और मूलवतोंको विशुद्ध रखनेके लिए इस लोक और परलोकमें दुःख देनेवाले रात्रि-भोजनका त्याग कर देना चाहिए ॥३२५॥ भावार्थ-रातमें भोजन करनेसे हिंसा अवश्य होती है, क्योंकि सूर्यके सिवा अन्य जितने भी कृत्रिम प्रकाश हैं उनमें जीवोंका बाहुल्य देखा जाता है। रात्रिमें दीपक या बिजलीकी यदि पश्येत तदन्नं तु परित्यजेत् ॥' -व्यासः। 'चाण्डालपतितोदक्यावाक्यं श्रुत्वा द्विजोत्तमः । भुञ्जीत प्रासमात्र चेद्दिनमेकमभोजनम् ॥' -कात्यायनः। -आह्निक प्रकरण पृ० ४८२ पर उद्धृत। . १. व्रतबीजवृत्तयः । 'अतिप्रसङ्गमसितुं परिवर्धयितुं तपः । व्रतबीजवृती भुक्तेरन्तरायान् गृही श्रयेत् ॥३०॥' -सागारधर्मामृत ४ अ० । २. 'अहिंसावतरक्षार्थ मूलव्रतविशुद्धये । नक्तं भुक्ति चतुर्षाऽपि सदा धोरस्त्रिधा त्यजेत् ॥' -सागारधर्मा०, ४-२४ । 'निशायामशनं हेयमहिंसावतवृद्धये । मूलव्रतविशुद्धघर्ष यमार्थ परमार्थतः ॥५१॥' -प्रबोधसार पृ० ८४ ।।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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