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________________ १३४ सोमदेव विरचित स पुमान्ननु लोकेऽस्मिन्नुदर्के दुःखवर्जितः । यस्तदात्वसुखासङ्गान्न मुह्येद्धर्मकर्मणि ॥ २८४ ॥ स भूभारः परं प्राणी जीवन्नपि मृतश्च सः । यो न धर्मार्थकामेषु भवेदन्ये समाश्रयः || २८५ || [ कल्प २४, श्लो० - २८४ हो सकता है कि ] 'जो दूसरोंके घातके द्वारा सुख भोगने में तत्पर रहता है वह वर्तमान में सुख भोगते हुए भी दूसरे जन्म में दुःख भोगता है ।' [ आगेके श्लोकको देखते हुए यही अर्थ विशेष उचित प्रतीत होता है ] ॥ जो मनुष्य तात्कालिक सुखोपभोग में आसक्त होकर धर्म-कर्म में मूढ़ नहीं हो जाता अर्थात् धर्म-कर्म करता रहता है, वह इस लोक में और परलोक में दुःख नहीं उठाता ॥ २८४ ॥ भावार्थ - धर्म का मतलब केवल पूजा-पाठ कर लेना मात्र ही नहीं है; किन्तु अपने प्रतिदिनके आचरण में सुधार करना भी है । और वह सुधार है, ऐसे काम न करना जिनसे दूसरोंको कष्ट पहुँचता हो । मांस भक्षण एक ऐसी आदत है जो दूसरे प्राणियोंकी जान लिये बिना व्यवहार में नहीं लायी जा सकती; क्योंकि बिना किसी प्राणींकी जान लिये मांस मिल ही नहीं सकता । अतः जरासे जीभके स्वाद के लिए किसी प्राणीकी मृत्युका कारण बनना किसी भी समझदार आदमी का काम नहीं है । हमारी यदि जरा-सी खाल भी उचट जाती है तो कितनी वेदना होती है । फिर कसाई की छुरीसे जिसे काटा जाता है, उसकी तकलीफ़का तो कहना ही क्या है ? मनुष्य जानता है कि बुराईका फल बुरा है और भलाईका फल भला है। फिर भी वह अपने स्वार्थके लिए बुराई करनेपर उतारू हो जाता है। वह स्वयं तो चाहता है कि मेरे साथ कोई बुरा व्यवहार न करे, मेरी कोई जान न ले, मेरे बच्चों को कोई न सताये, मेरी स्त्री, बहन और बेटीको कोई बुरी निगाह से देखे भी नहीं, मेरा मालमत्ता कोई चुराये नहीं । किन्तु स्वयं वह दूसरोंकी जानका ग्राहक बन जाता है, दूसरोंकी बहू-बेटियों को देखकर आवाजें कसता है और मौका मिलते ही दूसरोंका माल हड़प कर जाता है। ऐसी स्थिति में उसका यह चाहना कि मेरे साथ कोई बुरा व्यवहार न करे, कैसे ठीक कहा जा सकता है । इसी बुराईको दृष्टिमें रखकर ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि थोड़ेसे कष्टसे खूब सुख भोगना चाहते हो तो उसका एक सीधा उपाय यह है कि जो व्यवहार तुम अपने लिए अनुचित समझते हो उसे दूसरों के साथ भी मत करो। अनेक मनुष्य सुखमें ऐसे मग्न हो जाते हैं कि उन्हें दीन-दुनिया की सुध ही नहीं रहती । फिर वे अपने सामने किसी को कुछ समझते ही नहीं । ऐसे मदान्ध मनुष्य जीते जी भले ही सुख भोग लें किन्तु मरनेपर उनकी दुर्गति हुए बिना नहीं रहती । क्योंकि कहावत है कि 'जब तक तेरे पुण्यका नहीं आता है छोर । अवगुन तेरे माफ़ हैं कर ले लाख करोर' । पुण्यका अन्त आनेपर उसकी भी वही दुर्गति होगी जो वह आज दूसरोंकी करता है । अतः ग्रन्थकार कहते हैं कि जरासे सुख में मग्न होकर उस धर्म-कर्मको मत भूलो जिसका फल सुखके रूपमें भोग रहे हो । जो मनुष्य धर्म, अर्थ और काममें से एकका भी पालन नहीं करता, वह पृथ्वीका भार है १. त्रिषु मध्ये एकस्यापि आश्रयो न भवेत् । स भूभार : '''''''' भवेदन्यतमाश्रयः - धर्मरत्ना०, पृ० ७८ उ. । ' स भूभारः परं पापी पशोरपि महापशुः । यो न मर्त्यभवं प्राप्य दयाधर्मं निषेवते ॥ १६ ॥ - प्रबोधसार
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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