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________________ १३२ सोमदेव विरचित [कल्प २३, श्लो०-२७७ महानिद्रासंपादनकुण्लो धूर्तिलः, परगोपायितद्रविणदेविशारदः शारदः, खरेपटाममविलासः कृकिलास्ववेति पञ्च मलिम्हुँचाः प्रतिपापरस्परप्रीतिप्रपश्चाः स्वव्यबसायसाहसाभ्यामीश्वरशपिरार्धवासिनी भवानीमपि मुकुम्बहल्याश्रयधियं श्रियमपि कात्यायनीलोचनासजनमअनमपि हर्तुं समर्थाः, पश्वतोहराणामपि पश्यतोहराः, कृतान्तदूतानामपि कृतान्तदूताः, कदाचिदेकस्यां निशि बेलालोपं वर्षति देवे कालपटलकालकायप्रतिष्ठासु सकलासु काठासु विहितपुरसारापहाराः पुरवाहिरिकोपवने धनं विभजन्तस्तवेदं ममेदमिति विवदमानाः कन्दलमपहाय समानायितमैरेयाः पानगोष्ठीमनुतिष्ठन्तः पूर्याहितकलहकोपोन्मेषकलुधिषणाः यशयष्टि मुशामुष्टि च युद्धं विधाय सर्वेऽपि मनु रन्यत्र धूर्तिलात्। ___ सकिल यथादर्शनसम्भवं महामुनिविलोकनात्तस्मिन्नहन्येकं व्रतं गृहाति । तत्र च दिने तहे शनादासवत्रतमग्रहीत् । तदनु धूर्तिलः समानशीलेषु कश्यवश्यां विनाश लेश्यामात्मसमक्षमुपयुज्य विरज्याजवंजे वादसुखबीजादुत्पाटये च मनोजकुजजटाजालनिवेशमिव केशपाशं चिरत्राय" (?)पर हितजैत्राय समीहांचके! छिपाये हुए धनका स्थान खोज निकालनेमें कुशल था। और कृकिलास ठग विद्या में निपुण था । पाँचोंमें परस्परमें बड़ी प्रीति थी। और अपने उद्यम और साहससे वे शिवके अर्धाङ्गमें निवास करनेवाली पार्वतीको, विष्णुके हृदयमें बसनेवाली लक्ष्मीको और दुर्गाकी आँखोंमें लगे अंजनको भी चुरानेमें समर्थ थे। वे चोरोंके भी चोर थे और यमराजके दूतोंके लिए भी यमराजके दूत थे। एक बार रातमें जब जोरसे वर्षा हो रही थी और दिशाएँ कज्जलकी तरह काली थीं, वे चोर चोरी करके नगरसे बाहर एक उद्यानमें धनका बटवारा करते थे। और यह मेरा है यह तेरा है कहकर परस्परमें झगड़ रहे थे। झगड़ा बन्द करके उन्होंने शराब बुलवायी और पीने लगे । झगड़ेके कारण उनके मनमें क्रोध तो समाया ही हुआ था, शराब पीकर वे परस्परमें मुक्कामुक्की और लटुं-लट्ठा करने लगे और धूर्तिलके सिवा संब मर गये। धूर्तिलके यह नियम था कि यदि उसे किसी दिन किसी, महामुनिके दर्शन होते थे तो उस दिनके लिए वह एक व्रत ले लेता था । उस दिन भी उसे महामुनिके दर्शन हुए थे और उसने शराबका व्रत ले लिया था। इसी से वह बच गया। उक्त घटनाके बाद शराबके कारण अपने साथियोंका विनाश हुआ देखकर धूर्तिल दुःखोंके मूल इस संसारसे विरक्त हो गया और कामदेवरूपी वृक्षकी जटाओंके समान बालोंका लोंच करके परलोकमें महितको जीतनेबाले रत्नत्रयकी प्राप्तिका इच्छुक हो गया। १. -देशनिवेशवि-ब० । २. ठगविद्या । ३. चौराः । ४. चेलक्रोपं-आ० । ५. कृष्णशरीरशोभासु । ६. दिशासु । ७. द्रव्य । ८. युद्धम् । ९. अन्येन केनचित् कृत्वा आनायितमद्याः । १०. मद्यपानात् पूर्व कृत्-।११. यस्मिन् दिने मुनयो मिलन्ति तद्दिने नित्यं व्रतं गृह्णाति । १२. मुनि । १३. मरणावस्थाम् । १४. दृष्ट्वा । १५. संसारात् । १६. उत्पाटनं कृत्वा । १७. चिरं दीर्घकालं पालितबानित्यर्थः (?)। १८. परलोकपापदुःखजयनशीलाय ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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