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________________ १३० सोमदेव विरचित [कल्प २२, श्लो० २७५मद्यैकबिन्दुसंपन्नाः प्राणिनः प्रचरन्ति चेत् । पूरयेयुर्न संदेहं समस्तमपि विष्टपम् ॥२७५।। 'मनोमोहस्य हेतुत्वान्निदानत्वाञ्च दुर्गतेः । मद्यं सद्भिः सदा त्याज्यमिहामुत्र च दोषकृत् ॥२७६।। श्रूयतामत्र मद्यप्रवृत्तिदोषस्योपाख्यानम्-तदुर्वीश्वराखेर्वगर्वीर्वानलाहुतीभूताहितान्वयनकादेकचक्रात्पुरादेकपानाम परिव्राजको जाह्नवीजलेषु मजनाय व्रजनिजच्छायापरद्विपाशङ्कातिक्रुद्धमदान्धगन्धसिन्धुरोद्धरविषाणविदार्यमाणमेदिनीहृदये विन्ध्याटवीविषये प्ररूढप्रौढयौवनासवास्वादपुनरुक्तकादम्बरीपानप्रसूतासरालविलासग्रहिलाभिर्महिलाभिः सह पलोपदंशवश्यं कश्यमासेवमानस्य महतो मातङ्गसमूहस्य मध्ये निपतितः सन् सीधुसंबन्धविधुरधीसङ्गैर्मातङ्गैरुपरुध्य असौ किलैवमुक्तः–'त्वया मद्यमांसमहिलासु मध्येऽन्यतमसमागमः कर्तव्यः, अन्यथा जीवन्न पश्यसि मन्दाकिनीम्' इति । सोऽप्येवमुक्त स्तिलसर्षपप्रमितस्यापि हि पिशितस्य प्राशने स्मृतिषु महावृत्तयो विपत्तयः श्रूयन्ते। मातङ्गीसङ्गे इतने जीव रहते हैं कि यदि वे फैलें तो समस्त जगत्में भर जायें। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है॥२७५॥ अतः चूंकि मद्यपानसे मन हित अहितके विचारसे शन्य हो जाता है और वह दुर्गतिका कारण है, इसलिए इस लोक और परलोकमें बुराइयोंको पैदा करनेवाले मद्यका सज्जन पुरुषोंको . सदाके लिए त्याग करना चाहिए ॥२७६॥ मद्यपायी एकपात संन्यासीकी कथा मद्यपानके दोषोंके सम्बन्धमें एक कथा है उसे सुनें एकपातं नामका एक संन्यासी गंगास्नान करनेके लिए एकचक्र नामके नगरसे चला । मार्ग में वह विन्ध्याटवीसे गुजरा। वहाँ भीलोंका एक बड़ा भारी झुण्ड यौवन मदके साथ शराब पीकर मस्त हुई विलासिनी तरुणियोंके साथ मांस और सुराका सेवन कर रहा था। वह संन्यासी उस झुण्डमें जा फँसा। शराबके नशेमें मस्त हुए भीलोंने उसे पकड़ लिया और उससे बोले-'तुझे मद्य, मांस और स्त्रीमें-से किसी एकका सेवन करना होगा, नहीं तो तू जीते जी गंगाका दर्शन नहीं कर सकता। यह सुनकर तापसी सोचने लगा-'स्मृतियोंमें एक तिल या सरसों बराबर भी मांस खाने पर बड़ी-बड़ी विपत्तियों का आना सुना जाता है। भिल्लनीके साथ सम्बन्ध करनेपर प्रायश्चित्त १. 'मनोमोहस्य"निदानत्वाद् भवापदाम् । ""दोषभृत् ॥'-प्रबोधसारमें उद्धृत । 'मद्यं मोहयति मनो मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम् । विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशङ्कमाचरति ॥६२॥ रसजानां च बहूनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम् । मद्यं भजतां तेषां हिंसां सञ्जायतेऽवश्यम् ॥६३॥ -पुरुषार्थसि० । 'चित्ते भ्रान्तिर्जायते मद्यपानाद् भ्रान्ते चित्ते पापचर्यामुपैति । पापं कृत्वा दुर्गतिं यान्ति मूढास्तस्मान्मद्यं नैव पेयं न पेयम्।'-सुभाषितरत्नभाण्डागार पृ० १४८१६ २. महत् । ३. बडवानल । ४. गज । ५. दन्त । ६. मद्य । ७. मांसशाकसहितम । ८. मद्यम् । ९. विकलमतियुक्तः । १०. मातंगैरुक्तः सन् चिन्तयति ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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