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________________ १२८ सोमदेवाषिरचित [कल्प २१, श्लो० २६६सम्यक्त्वात्सुगतिः प्रोका जानाकीतिरुवाहता। वृत्तात्पूजामवायोति जवाब सामने सिनम् ॥२६॥ रुचिस्तत्त्वेषु सम्यक्त्वं शानं तत्वनिरूपणम् । मौदासीन्यं परं प्राहुर्वृत्तं सर्वनियोज्मितम् ॥२६७॥ वृत्तमग्निरुपायो धीः सम्यक्त्वं च रसौषधिः । साधुलिखो भवेदेष तल्लाभादात्मपारदः ॥२६॥ सम्यक्त्वस्याश्रयश्चित्तमभ्यासो मतिसम्पदः। चारित्रस्य शरीरं स्याद्वित्तं दानादिकर्मणः ॥२६॥ इत्युपासकाध्ययने रत्नत्रयस्वरूपनिरूपणो नामैकविंशतितमः कल्पः । पुनर्गुणमणिकटक चेकटकमेव माणिक्यस्य, सुधाविधानमिव प्रासादस्य, पुरुषकारा. नुष्ठानमिव देवसम्पदः, परक्रमावलम्बनमिव नीतिमार्गस्य, विशेषवेदित्वमिव सेव्यत्वस्य, व्रतं हि खलु सम्यक्त्वरलस्योपबृंहकमाहुः । तच देशयतीनां द्विविधं मूलोत्तरगुणाश्रय सम्यग्दर्शनसे अच्छी गति मिलती है। सम्यग्ज्ञानसे संसारमें यश फैलता है । सम्यक्चारित्रसे सम्मान प्राप्त होता है और तीनोंसे मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥२६६॥ तत्त्वोंमें रुचिका होना सम्यग्दर्शन है। तत्त्वोंका कथन कर सकना सम्यग्ज्ञान है और समस्त क्रियाओंको छोड़कर अत्यन्त उदासीन हो जाना सम्यक्चारित्र है ॥२६७॥ चारित्र अग्नि है, सम्यग्ज्ञान उपाय है और सम्यग्दर्शन परिपूर्ण औषधियोंके तुल्य है। इन सबके मिलनेपर आत्मारूपी पारदधातु अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है ॥२६८॥ भावार्थ-पारेको सिद्ध करनेके लिए रसायनशास्त्री उसमें अनेक औषधियोंके रसोंकी भावना दे-देकर आगपर तपाते हैं तब पारा सिद्ध हो जाता है वैसे ही आत्मारूपी पारदको सिद्ध करनेके लिए चारित्ररूपी अम्नि, सम्यग्ज्ञानरूपी उपाय और सम्यग्दर्शनरूपी औषधियाँ आवश्यक हैं। उनके मिलनेपर आत्मा सिद्ध अर्थात् मुक्त हो जाता है। सम्यग्दर्शनका आश्रय चित्त है। सम्यग्ज्ञानका आश्रय अभ्यास है। सम्यकचारित्रका आश्रय शरीर है और दाता वगैरहका आश्रय धन है ॥२६॥ इस प्रकार उपासकाध्ययनमें रत्नत्रयका स्वरूप बतलानेवाला इक्कीसवाँ कल्प समाप्त हुआ। जैसे चूनाकी छुआईसे मकान, पौरुष करनेसे दैव, पराक्रमसे नीति और विशेषजतासे सेव्यपना चमक उठता है वैसे ही व्रत भी सम्यक्त्वरूपी रत्नको चमका देता है। गृहस्थोंके व्रत १. 'वृत्तं वह्निरुपायो धीदर्शनं परमौषधिः । साधुसिद्धो भवेदेष तल्लाभादात्मपारदः ॥ दर्शनस्याश्रयः स्वान्तमभ्यासो मतिसम्पदः। सद्वत्तस्य शरीरं स्याद्वित्तं दानादिसद्विधिः ॥-प्रबोधसारमें उद्धत । २. अत्र यशस्तिलकचम्पकाव्यस्य षष्ठ आश्वासः समाप्यते; यथा-"इति सकलतार्किकलोकचडामणे: श्रीमन्नेमिदेवभमवत: शिष्येण सद्योनवद्यगद्य पद्य विद्याधरचक्रचक्रवतिशिखण्डमण्डनीभवच्चरणकमलेन श्रीसोमदेवमूरिणा विरचिते यशोधरमहाराजचरिते यशस्तिलकापरनाम्न्यपवर्गमार्गमहोदयो नाम षष्ठ आश्वासः ।" ३. शोधनरचनाक्रिया। ४. पौरुषशक्तिकर्तव्यम् । ५. पूर्वोपार्जितपुण्यस्य । ६. विद्वत्त्वम् । ७. गुरोः नृपादिकस्य (?) । ८. व्रतम् ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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