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________________ १२२ २१] जीवन्तु वा नियन्तां वा प्राणिनोऽमी स्वकर्मतः। स्वं विशुद्धं मने हिंसन् हिंसक पापभाग्भवेत् ॥२५०॥ शुद्धमार्गमतोद्योगः शुद्धचेतोवचोवपुः। शुद्धान्तरात्मसंपन्नो हिंसकोऽपि न हिंसकः ॥२५॥ राग-द्वेषसे युक्त जीव अच्छे या बुरे कामोंमें लगता है तब कर्मरूपी रज ज्ञानावरणादिक रूपसे उसमें प्रवेश करता है। जैनदर्शनमें पुद्गल द्रव्यकी २३ वर्गणाएँ मानी गयी हैं। उनमेंसे एक कार्मण वर्गणा भी है, जो समस्त संसारमें व्याप्त है । यह कार्मण वर्गणा ही जीवोंके भावोंका निमित्त पाकर कर्मरूप परिणत हो जाती है। जीव उनका कर्ता नहीं है, क्योंकि द्रव्य कर्म पौद्गलिक है, पुद्गल दन्यके विकार हैं। उनका कर्ता चेतन जीव कैसे हो सकता है ? चेतनका कर्म चैतन्य रूप होता है और अचेतनका कर्म अचेतन रूप। यदि चेतनका कर्म भी अचेतन रूप होने लगे तो चेतन और अचेतनका भेद मिट जानेसे महान् संकर दोष उपस्थित हो। अतः प्रत्येक द्रव्य स्वभाक्का कर्ता है, परभावका कर्ता नहीं है । जैसे जल स्वभावसे शीतल होता है, किन्तु आगपर रखनेसे उष्ण हो जाता है। यहाँपर उष्णताका कर्ता जलको नहीं कहा जा सकता। उष्णता तो अग्निका धर्म है, वह जलमें अग्निके सम्बन्धसे आयी है, अतः आगन्तुक है, अग्निका सम्बन्ध अलग होते ही चली जाती है। इसी प्रकार जीवके अशुद्ध भावोंका निमित्त पाकर जो पुद्गल द्रव्य कर्मरूप परिणत होते हैं उनका कर्ता स्वयं पुद्गल ही है, जीव उनका कर्ता नहीं हो सकता । जीव तो अपने भावोंका कर्ता है। जैसे यदि कोई सुन्दर युवा पुरुष बाजारसे कार्यक्श जाता हो और कोई सुन्दरी उसपर मोहित होकर उसकी अनुगामिनी बन जाये तो इसमें पुरुषका क्या कर्तृत्व है ? की तो वह स्त्री है, पुरुष उसमें केवल निमित्तमात्र है। वैसे ही जीव तो अपने रागद्वेषादि रूप मावोंका कर्ता है। किन्तु उन भावोंका निमित्त पाकर कर्मरूप होनेके योग्य पुद्गल कर्मरूप परिणत हो जाते हैं। तथा कर्मरूप परिणत हुए पुद्गल द्रव्य जब अपना फल देते हैं तो उनके निमित्तको पाकर जीव भी रामादि रूप परिणमन करता है। यद्यपि जीव और पौद्गलिक कर्म दोनों एक दूसरेका निमित्त पाकर परिणमन करते हैं तथापि न तो जीव पुद्गल कोंके गुणोंका कर्ता है और न पुद्गल कर्म जीवके गुणोंका कर्ता है। किन्तु परस्पस्में दोनों एक दूसरेका निमित्त पाकर परिणमन करते हैं। अतः आत्मा अपने मायका ही कर्ता है [ इस पर यह प्रश्न हो सकता है कि जब जीव अपने-अपने कर्मके उदयसे जीते और मरते हैं तो जो मारनेमें निमित्त होता है उसे हिंसाका पाप क्यों लगता है, अतः इसका समाधान करते हैं ] ये प्राणी अपने कर्मके उदयसे जीवें या मरें, किन्तु अपने विशुद्ध मनकी हिंसा करने वाला हिंसक है और इसलिए वह पापका भागी है। जो शुद्ध मार्गमें प्रयत्नशील है, जिसका मन, वचन बौर शरीर शुद्ध है, तथा जिसकी अन्तरात्मा भी शुद्ध है वह हिंसा करके भी हिंसक नहीं है ।। २५०-२५१ ।। १. 'मरदु व जीवदु जोको अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्वि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ॥' २. भशुद्ध मनः कुर्वन् पुनान् हिंसको भवति । 'स्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमाकान् । पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चाद् स्याद्वा न का वधः' ।।-सर्वार्थसिद्धि ७-१३ में उद्धृत । ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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