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________________ -२३६ ] उपासकाध्ययन ११५ गृहस्थो वा यतिर्वापि सम्यक्त्वस्य समाश्रयः । एकादशविधः पूर्वश्वरमश्च चतुर्विधः ॥२३॥ मायानिदानमिथ्यात्वशैल्यत्रितयमुद्धरेत् । आर्जवाकाङ्क्षणाभावतत्त्वभावनकोलकैः ॥२३६॥ भावार्थ-सम्यक्त्वके ये भेद बाह्य निमित्तोंको लेकर किये गये हैं। इनमें से जिनमें तत्त्वार्थका श्रद्धान आचार्य वगैरहके उपदेशसे होता है वे अधिगमज कहलाते हैं और जिनमें स्वतः ही शास्त्रादिकका अवगाहन करके तत्त्वार्थका श्रद्धान होता है वे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहलाते हैं। इसी तरह इनमें से जो सम्यक्त्व सरागीके होते हैं वे सरागसम्यग्दर्शन कहलाते हैं और जो वीतरागीके होते हैं वे वीतरागसम्यग्दर्शन कहलाते हैं। किन्तु इन सभीका अन्तरङ्ग कारण दर्शनमोहनीयका उमशम, क्षय अथवा क्षयोपशम है, उसके बिना तो सम्यग्दर्शन हो ही नहीं सकता। इनमें से जो सम्यग्दर्शन दर्शनमोहनीयके उपशमसे होते हैं वे औपशमिक कहे जाते हैं, जो दर्शनमोहनीयके क्षयसे होते हैं वे क्षायिक कहे जाते हैं और जो दर्शनमोहनीयके क्षयोपशमसे होते हैं वे क्षायोपशमिक कहे जाते हैं। इस प्रकार इन सब भेदोंका परस्परमें समन्वय कर लेना चाहिए। गृहस्थ हो या मुनि हो, सम्यग्दृष्टि, अवश्य होना चाहिए अर्थात् सम्यक्त्वके बिना न कोई श्रावक कहला सकता है और न कोई मुनि कहला सकता है। गृहस्थके ग्यारह भेद हैं जिन्हें ग्यारह प्रतिमाएँ कहते हैं और मुनिके चार भेद हैं ॥२३॥ ___ सरलता रूपी कीलके द्वारा माया रूपी काँटेको निकालना चाहिए। इच्छाका अभाव रूपी कीलके द्वारा निदान रूपी काँटेको निकालना चाहिए और तत्त्वोंकी भावना रूपी कोलके द्वारा मिथ्यात्व रूपी काँटेको निकालना चाहिए ॥२३६॥ भावार्थ-माया, निदान और मिथ्यात्व ये तीन शल्य हैं। शल्य काँटेको कहते हैं। जैसे काँटा शरीरमें लग जानेपर तकलीफ देता है वैसे ही ये तीनों भी जीवोंको शारीरिक और मानसिक कष्ट पहुँचाते हैं इसलिए इन्हें शल्य कहते हैं। इन शल्योंको हृदयसे दूर किये बिना कोई व्रती नहीं कहा जा सकता। व्रती होनेके लिए केवल व्रतोंको धारण कर लेना ही आवश्यक नहीं है किन्तु उनके साथ-साथ तीनों शल्योंको भी निकाल डालना आवश्यक है । जो मायाचारी है वह कैसे व्रती हो सकता है ? व्रती होनेके लिए सरलताका होना जरूरी है । अतः सरलताके द्वारा मायाचारको दूर करना चाहिए। इसी तरह जो रात-दिन भविष्यके भोगोंकी ही कामना करता रहता है, उसका व्रत-नियम कैसे निर्दोष कहा जा सकता है ? जो इसलिए उपवास करता है कि उपवासके बाद नाना तरहके पक्वान्न भरपेट खानेको मिलेंगे, जो इसलिए ब्रह्मचर्य पालता है कि शक्ति सञ्चित करके फिर खूब भोग भोगूंगा, या मरकर स्वर्गमें देव होकर अनेक देवाङ्गनाओंके साथ रमण करूँगा, जो इसलिए दान देता है कि उससे मेरी खूब ख्याति १. ऋषि-मुनि-यति-अनगारभेदेन । 'देशप्रत्यक्षवित्केवलभृदिह मुनिः स्याद् ऋषिः प्रोद्गद्धिरारुढश्रेणियुग्मोऽजनि यतिरनगारोऽपरः साधुरुवतः । राजा ब्रह्मा च देवः परम इति ऋषिविक्रियाऽक्षीणशक्ति: प्राप्तो बुद्धयौषधीशो वियदयनपटुर्विश्ववेदी क्रमेण ॥-चारित्रसार पृ० २२ । २. निःशल्यो व्रती ।-तत्त्वार्थसूत्र ७-१८।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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