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________________ -२२५ ] उपासकाध्ययन १०७ अपने-अपने स्थानसे उठाकर कुछको प्रथमस्थितिमें डाल दिया जाता है और कुछको द्वितीयस्थिति में डाल दिया जाता है। इस क्रियाके पूर्ण होनेके साथ मिथ्यात्वकी प्रथमस्थिति भी पूरी हो जाती है। उसके पूरे होते ही अन्तर्मुहूर्त कालके लिए मिथ्यात्वके उदयका अभाव हो जानेसे प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है। मिथ्यात्व गुणस्थानसे छूटते हुए जो उपशम सम्यक्त्व प्रकट होता है उसे प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं। अनादि मिथ्यादृष्टिको पहले-पहले प्रथमोपशम सम्यक्त्व ही होता है। प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति अन्तरंग और बहिरंग कारणोंसे होती है। सम्यग्दर्शन भी अन्तरंग और बाह्य कारणोंके मिलनेपर ही प्रकट होता है। इसका अन्तरंग कारण तो दर्शन मोहनीयकी मिथ्यात्व, सम्यक्त्व मोहनीय सौर सम्यकमिथ्यात्व मोहनीय इन तीन प्रकृतियोंका तथा चारित्र मोहनीयको अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया और लोभ इन चार प्रकृतियोंका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम है। और इनके क्षय अथवा उपशममें पूर्वोक्त पाँच लब्धियोंमें से करणलब्धि मुख्य कारण है तथा बाह्य कारण अनेक हैं। नरक गतिमें पहलेके तीन नरकोंमें पूर्व जन्मकी घटनाओं का स्मरण, धर्मका श्रवण और कष्टोंका अनुभव बाह्य कारण है। आगेके चार नरकोंमें धर्म-श्रवणको छोड़कर बाकीके दो ही बाह्य कारण पाये जाते हैं। तिर्यञ्चों और मनुष्योंमें पूर्व जन्मका स्मरण, धर्मका श्रवण और जिनविम्बका दर्शन बाह्य कारण हैं। देवोंमें भवनवासीसे लेकर बारहवें स्वर्गतक पूर्व जन्मका स्मरण, धर्मका श्रवण, जिन भगवान्की महिमाका निरीक्षण तथा अपनेसे बड़े अन्य देवोंकी ऋद्धिका दर्शन बाह्य कारण है। बारहवें स्वर्गसे ऊपर तेरहवें, चौदहवें, पन्द्रहवें और सोलहवें स्वर्गमें देवोंकी ऋद्धिके दर्शनके सिवा शेष तीन ही बाह्य कारण हैं। नव अवेयकके देवोंमें पूर्व जन्मका स्मरण और धर्मका श्रवण ये दो ही वाह्य कारण हैं क्योंकि सोलह स्वर्गसे ऊपरके देव कहीं बाहर नहीं जाते । और नव ग्रैवेयकसे ऊपरके सब देव नियमसे सम्यग्दृष्टि ही होते हैं क्यों कि वहाँ सम्यग्दृष्टि ही मरकर जन्म लेते हैं। इतना विशेष है कि नरकगति और देवगतिमें तो जन्म लेनेके अन्तर्मुहूर्त बाद सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है किन्तु तिर्यञ्च गतिमें जन्म लेनेके आठ नौ दिन बाद सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है और मनुष्यगतिमें आठ वर्षकी अवस्था हो जानेपर सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है। ऊपर पाँच लब्धियोंमें एक देशनालब्धि बतलायी है। जिसे सम्यग्दर्शन प्रकट होना होता है उसे इसी भव या पूर्व भवमें नौ या सात तत्त्वोंका उपदेश सुनने को अवश्य ही मिलना चाहिए । जिस जीवने पूर्व भवमें उपदेश सुना और उसके संस्कारके रहनेसे इस भवमें अन्य कारणोंके मिलनेपर उसे अनायास सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो गयी तो वह सम्यग्दर्शन निसर्गज कहा जाता है; क्योंकि उसे इन भवमें उसकी प्राप्तिके लिए थोड़ा-सा भी प्रयत्न नहीं करना पड़ा। किन्तु इसी भवमें उपदेशादिका निमित्त मिलनेपर जो सम्यक्त्व प्रकट होता है उसे अधिगमज सम्यकदर्शन कहते हैं। सम्यग्दर्शनके ये दोनों भेद केवल बाह्य उपदेशकी अपेक्षाको लेकर ही किये गये हैं। जो सम्यक्त्व उसी भवमें तत्त्वोंके उपदेशका लाभ होनेपर प्रकट होता है उसे अधिगमज कहा जाता है और जो इस भवके प्रयत्लके बिना पूर्वभवके संस्कारके कारण प्रकट हो जाता है उसे निसर्गज कहा जाता है; क्योंकि इस भवमें उसके लिए कुछ भी श्रम नहीं किया गया और इस तरह वह अनायास ही प्राप्त हुआ कहलाया। दूसरे शब्दोंमें इसे देवसे प्राप्त भी कह सकते हैं और अधिगमजको पौरुषसे प्राप्त कह सकते हैं।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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