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________________ १०४ सोमदेव विरचित [कल्प २१, श्लो० -२२३ निसर्गोऽधिगमो वापि तदाप्तौ कारणद्वयम् । सम्यक्त्वभाक्पुमान्यस्मादल्पानल्पप्रयासतः ॥२२३॥ उक्तं च "आसन्नभव्यताकर्महानिसंज्ञित्वशुद्धपरिणामाः । सम्यक्त्वहेतुरन्तर्बाह्योऽप्युपदेशकादिश्च ॥२२४॥ एतदुक्तं भवति-कस्यचिदासन्नभव्यस्य तन्निदानद्रव्यक्षेत्रकालभावभवसंपत्सेव्यस्य विधूतैतत्प्रतिबन्धकान्धकारसंबन्धस्याक्षिप्तशिक्षाक्रियालापनिपुणकरणानुबन्धस्य नवस्य भाजनस्येवासंजातदर्वासनागन्धस्य झरिति यथावस्थितवस्तस्वरूपसंक्रान्तिहेततया स्फाटि कमणिदर्पणसर्गन्धस्य पूर्वभवसंभालनेन वा वेदनानुभवनेन वा धर्मश्रवणाकर्णनेन वाहत्प्रतिनिधिनिध्यानेन वा महामहोत्सवनिहीलनेन वा महर्द्धिप्राप्ताचार्यवाहनेन वा नृषु नाकिषु वा तन्माहात्म्यसंभूतविभवसंभावनेन वान्येन वा केनचित्कारणमात्रेण विचारकान्तारेषु मनोविहारास्पदं खेदमनापद्य यदा जीवादिषु पदार्थेषु याथात्म्यसमवधानं श्रद्धानं भवति तदा प्रयोक्तुः सुकरक्रियत्वाल्लूयन्ते शालयः स्वयमेव, विनीयन्ते कुशलाशयाः स्वयमेव, सम्यग्दर्शनका वर्णन __ सम्यग्दर्शन दो प्रकारसे होता है-एक तो परोपदेशके बिना स्वयं ही हो जाता है और दूसरे, परोपदेशसे होता है। क्योंकि किसी पुरुषको तो थोड़ा-सा प्रयत्न करनेसे ही सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है और किसीको बहुत प्रयत्न करनेसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है ॥२२३॥ कहा भी है 'सम्यक्त्वके अन्तरंग कारण निकट भव्यता, ज्ञानावरणादिक कर्मोंकी हानि, संज्ञीपना और शुद्ध परिणाम है; तथा बाह्य कारण उपदेश वगैरह हैं' ॥२२४॥ __आशय यह है कि जो कोई निकट भव्य है, सम्यग्दर्शनके योग्य द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव और भवरूपी सम्पत्तिकी जिसे प्राप्ति हो गई है, उसमें किसी तरहकी रुकावट डालने वाला कोई प्रतिबन्धक नहीं रहा है, शिक्षा, क्रिया, बातचीतको ग्रहण करनेमें निपुण पाँचो इन्द्रियों और मनसे जो युक्त है अर्थात् संज्ञी पंचेन्द्रिय है, नये बस्तनकी तरह जिसमें दुर्वासनाकी गन्ध नहीं है, वस्तुका जैसा स्वरूप है वैसा ही स्वरूप दर्शानेके लिए जो स्फटिक मणिके दर्पणके समान स्वच्छ है, ऐसे जीवके पूर्वभवके स्मरणसे, कष्टोंके अनुभवसे, धर्मके श्रवणसे, जिनविम्बके दर्शनसे, महामहोत्सवोंके अवलोकनसे, ऋद्धिधारी आचार्योंके दर्शन करनेसे, मनुष्यों तथा देवोंमें सम्यक्त्वके माहात्म्यसे उत्पन्न हुए विभवको देखनेसे या अन्य किसी कारणसे विचाररूपी वनमें मनको न भटका कर जब जीवादिक पदार्थों में ज्यों-का-त्यों श्रद्धान होता है तो उस सम्यग्दर्शनको निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं। क्योंकि जैसे धान्य स्वयं ही कट जाते हैं अथवा सदाशयी स्वयं ही विनीत हो जाते हैं उसी तरह उसमें कर्ताको श्रम करना नहीं पड़ता। १. 'तनिसर्गादधिगमाद्वा' ॥-तत्त्वार्थसूत्र १-२। २. भब्वो पंचिदिओ सण्णी जीवो पज्जत्तओ तहा। काललद्धाइसंजुत्तो सम्मत्तं पडिवज्जए ॥१५८॥-पंचसंग्रह पृ० ३४ । ३. कारण। ४. गृहीत । ५. पञ्चेन्द्रियमनःसम्बन्धस्य । ६. समानस्य । ७. षट्खण्डागम, पु० ६, पृ० ४१८-४३६ । सर्वार्थसिद्धि-सूत्र १-७। तत्त्वार्थवार्तिक । ८. निध्यानं निहालनं, वाहनं-दर्शनम् । ९. देवेषु ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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