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________________ १०२ सोमदेव विरचित [कल्प २०, श्लो० २२१जिरसंपुटकोटरावकाशः प्रदीपप्रकाश इव संजातवामनाकृतिः सप्ततन्तुवसुमतीमनुसृत्य मधुरध्वनिः तृतीयेने सवनेन प्राध्ययनं व्यधात् । बलिर्जलधरध्वानबन्धुरं वाक्प्रसरं सिन्धुर इव निभृतको निर्वर्ण्य 'कोऽयं खलु वेदवाचि विरिञ्च इवोच्चारचतुरः' इति कुतृहलितहृदयः सत्रनिलयान्निर्गत्य वयसि च निश्चिताश्चयेसौन्दर्य द्विजवर्यमेनमवादीत्-भट्ट, किमिष्टं वस्तु चेतसि निधाय प्राधीषे'। 'वले, दायादविलुप्तालयत्वात्तदर्थ पादत्रयप्रमाणकलमवनितलम् । द्विजोत्तम निकाम दत्तम्' । 'यद्येवं बहुमानयजमान, विधीयतामुदकधारोत्तरप्रवृत्तिः दत्तिः । वलिः प्रबलामालेमादाय 'द्विजाचार्य, प्रसार्यतां हस्तः' इत्युक्तवति शुक्रः संक्रन्दनमिव कुलिशनिकेतनम् , प्रासादमिव कलशाह्नादम् , जलाशयमिव मत्स्याश्रयम् , सरिन्नाथमिव शङ्खसनाथम्, विरहिणीवासरगणनकुड्यप्रदेशमिवोर्ध्वरेखावकाशम् , नारायणमिव चक्रलक्षणम् , यज्ञोपकरणमिव जलयानपात्रमिव निश्छिद्रतामत्रम्, स्तम्बरमकरमिव दीर्घाङ्गलिप्रसरम, वंशकिशलयमिवान पूर्वीप्रवृत्तपर्वसंचयम् , कमलकोशमिवारुणप्रकाशनिवेशम्, विद्रुमभङ्गाभोगमिव स्निग्धपाटलनखराग्रं लक्ष्मोलताविर्भावोदयं शवमुपलक्ष्य, बले न खल्वयमेवंविधपाणितलसंवन्धो गोधः चयवाधिकरणम्, मेघकी ध्वनिके समान सुन्दर वचन-विलासको हाथीकी तरह कान लगाकर सुननेपर बलिको कौतूहल हुआ कि ब्रह्माके समान वेदका पाठ करनेमें चतुर यह कौन है ? वह तुरन्त ही यज्ञमण्डपसे बाहर आया और विष्णु मुनिके आश्चर्यजनक वामन रूपको देखकर बोला'ब्राह्मणश्रेष्ठ ! किस इष्ट वस्तुकी इच्छा चित्तमें रखकर यह वेदपाठ करते हो ?' 'बलिराज ! मेरा घर हिस्सेदारों ने छीन लिया है। उसके लिए केवल तीन पैर जमीन चाहता हूँ।' 'द्विजोत्तम ! मैं तुम्हें तीन पैर जमीन देता हूँ।' 'तो माननीय यजमान ! जलकी धारा पूर्वक दानका संकल्प कर दें।' एक बड़ी झारी हाथमें लेकर बलि बोला-'द्विजाचार्य ! हाथ फैलाइये ।' जैसे ही वामन रूप धारी विष्णु मुनिने हाथ फैलाया, शुक्राचार्यकी दृष्टि उसपर पड़ी। इन्द्रकी तरह वज्रसे युक्त, महलकी तरह कलशसे विशिष्ट, सरोवरकी तरह मछली युक्त, समुद्रकी तरह शंख सहित, विरहिणी स्त्रीके द्वारा अपने पतिके वियोगके दिनोंको गिननेके लिए दीवारपर खींची गई ऊर्ध्व रेखाओंकी तरह ऊर्ध्व रेखासे युक्त , विष्णु की तरह चक्रसे चिह्नित, यज्ञके उपकरण भूत यवों (जौ ) की तरह अँगूठेमें यवाकार रेखासे युक्त, पानी पर चलनेवाले जहाजको तरह छिद्ररहित, हार्थीकी सूंड़की तरह लम्बी अँगुलियोंवाले, बाँसके नये पत्तोंकी तरह पर्व और ग्रन्थिसे सहित, कमलके कोशकी तरह लालिमायुक्त और मूंगोंकी तरह गुलाबी रंगवाले नखोंके अग्रभागसे शोभित हस्तको देखकर अर्थात् वज्र, कलश, मछली, शंख, चक्र, उध्व रेखा और जौ आदि शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, छिद्र रहित और लम्बी अँगुलियों और लाल-लाल नखों युक्त १. यज्ञभूमि । २. उदात्तस्वरेण । ३. गजवत् । ४. ब्रह्मा। ५. च्चारणच-आ०। ६. प्राध्ययनं • कुरुषे । ७. भृङ्गारं। ८. इन्द्र । ९. समुद्र । १०. पुरुषः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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