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________________ -१८८] उपासकाध्ययन श्यन्मणिमोषीयातिप्ततुल्लकवेषश्चान्द्रायणाचरणैः पक्षपारणाकरणैर्मासोपवासप्रारम्भैरपरैरपि तपःसंरम्भैः क्षोभितनगनगरपामग्रामणीगणः क्रमेण जिनेन्द्रभक्तभावाधिकरणतामभजत् । एकान्तभक्तिशक्तः स जिनेन्द्रभक्तस्तं मायात्मसात्कृतप्रियतमाकारमपरमार्थाचारमजाननार्यवर्यावश्यमनेकानय॑रत्नरचितजिनदेहसंदोहेऽस्मद्देवगृहे त्वया तावदासितव्यं यावदहं बहित्रयात्रां विधाय समायामि' इत्ययाचत । अप्रकटकूटकपटक्रमः प्रियतमः 'श्रेष्ठिन् , मैवं भाषिष्ठाः, यदङ्गनाजनसंकीर्णेषु द्रविणोदीर्णेषु देशेषु विहितोकसां प्रायेणामलिनमनसामपि सुलभोदाहाराः खलु खलजनतिरस्काराः'। श्रेष्ठी-'देशयतीश, न सत्यमेतत् । अपरिज्ञातपरलोकव्यवहारस्यावशेन्द्रियव्यापारस्य हि पुरुषस्य बहिःसङ्गे स्वान्तं विकुरुतां नाम, न पुनर्यथार्थदृशामनन्यसामान्यसंयमस्पृशां यमस्पृशां भवादृशां यतीशाम्' इति बह्वाग्रहं देवगृहपरिग्रहाय तमयथार्थमुनिमभ्यर्थ्य कलत्रपुत्रमित्रबान्धवेष्वकृतविश्वासो मनःपरिजनदिनशकुनपवनानुकूलतया नगरबाहिरिकायां प्रस्थानमकार्षीत्। ____ मायामुनिस्तस्मिन्नेवावसरे तदगारमाकुलपरिवारमवबुध्यार्धावशेषायां निशि कृतरत्नापहारस्तन्मरीचिप्रचारादारक्षिकैरनुद्रुतशरीरः पलायितुमशक्तस्तस्यैव धर्महयंनिर्माणपरमेष्ठिनः श्रेष्ठिनः प्रस्थानावासनिवेशमाविवेश । श्रेष्ठयपि दुरालापबहलात्तत्कोलाहलागर्जना करके सूर्य नामका चोर वहाँ से निकलकर गौड देशमें आया। दूसरा उपाय न देख उसने मणि चुरानेके लिए क्षुल्लकका वेष बना लिया। कभी वह चान्द्रायण व्रत करता था, कभी एक पक्षमें पारणा करता था और कभी एक मासका उपवास करता था। इस प्रकारकी तपस्यासे नगर, गाँव वगैरहमें सर्वत्र हलचल मच गई। फैलते-फैलते यह चर्चा जिनेन्द्रभक्तके कानों तक भी पहुँची । वह परमभक्त उस मायावीके कपटवेषको न जानकर उससे प्रार्थना करनेके लिए गया कि-'आर्य श्रेष्ठ ! जब तक मैं देशकी यात्रा करके न लौ, तब तक आप अनेक अमूल्य रत्नोंसे रचित मेरे जिनालयमें ही ठहरें ।' अपने कपट जालको छिपानेके लिए वह बोला-'सेठ जी! ऐसा मत कहिए; क्योंकि स्त्रियोंसे व्याप्त और धनसे परिपूर्ण स्थानपर ठहरनेवाले निर्मल चित्त व्यक्तियोंका भी दुष्टजनोंके द्वारा तिरस्कार किये जानेके उदाहरण पाये जाते हैं।' सेठ–'क्षुल्लक महाराज ! यह बात सत्य नहीं है। जिसने परलोकको नहीं जाना और जिसकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं, बाह्य निमित्तके मिलनेपर उसका मन भले ही खराब हो जाये, किन्तु यथार्थदर्शी और असाधारण संयमके पालक आप जैसे यतिपतियोंके विषयमें यह बात लागू नहीं हो सकती।' इस प्रकार स्त्री, पुत्र, मित्र तथा बन्धु-बान्धवोंका विश्वास न करके वह सेठ आग्रह पूर्वक उस कपटवेषीको लिवा लाया। तथा मन, कुटुम्बीजन, दिन, शकुन और वायुको अनुकूल पाकर परदेश यात्राके लिए नगरके बाहर जाकर ठहर गया । उसी दिन वह कपटी मुनि उस मकानको आदमियोंसे भरपूर जानकर आधी रातके बीतनेपर रत्नको चुराकर जैसे ही चला वैसे ही उस रत्नकी चमकसे द्वारपालोंने उसे जाते देख १. चोरणार्थं । २. रचित । ३. यतीशानाम् मु० । १०
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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