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________________ सोमदेव विरचित [कल्प ६, श्लो० १७१मायामुनिः पुनरपि तन्मनोजिशासमानमानसः प्रसभमतिगम्भीरगलगुहाकुहरोजिहानघोरघोषाभिघातघनघूर्णितापघनमप्रतिघं चीवमीत् । भूमीपतिरपि 'श्राः, कष्टमजनिष्ट, यन्मे मन्दभाग्यस्य गृहे गृहीताहारोपयोगस्यास्य मुनेमनः खेदपादपवितर्दिच्छर्दिः समभूत्' इत्युपेक्रुष्ठानिष्टचेष्टितवानमात्मानं विनिन्दन्मायामयमक्षिकामण्डलितकपोलरेखादेतन्मुखादसराललालाक्लिन्नमिन्दिरीमन्दिरारविन्दोदरसौन्दर्यनिकटेनाञ्जलिपुटेनादायादाय मेदिन्यामुदसृजत्। पुनश्चोगीर्णोदीर्णदुर्वर्णकूर निकरे ‘भभ्रिमिनिर्भरारम्भपतितशरीरं सप्रयत्नकरस्थामसीमं' समुत्थाप्य जलजनितक्षालनप्रसंगमुत्तरीयदुकूलाञ्चलविलुप्तसलिलसंगमङ्गसंवाहनेनानुकम्पनविधानोचितवचनरचनेन च साधु समाश्वासयत्। तदनु प्रमोदामृतामन्दहृदयालवालक्लयोल्लसत्प्रीतिलतावनिः सुरचरो मुनिर्यथैवायं सहर्शनश्रवणोत्कण्ठितहृदि 'त्रिदिवोत्पादिपरिषदि परगुणग्रहणाग्रहनिधानेन विबुधप्रधानेन प्राज्यराज्यसमज्यार्जनसर्जितजगत्त्रयीनिजनामधेयप्रसिद्धिर्यथोक्तसम्यक्त्वाधिगमावधेयबुद्धि - रुपवर्णितस्तथैवायं मया महाभागो निर्वर्णित इति विचिन्त्य प्रकटितात्मरूपप्रसरस्तमवनीश्वरममरतरुप्रसूनवर्षानन्ददुन्दुभीनादोपघातशुचिभिः .. - साधुकारपरव्याहारावसरशुचिभिरुदारैरुपचारैरनिमिर्षविषयसंभूष्णुभिर्मनोभिलषितसंपादनजिष्णुभिस्तैस्तैः पठितमात्रैविधेयविद्योपदेशगभैर्वस्त्रसंदर्भश्च संभाव्य सुरसेव्यं देशमाविवेश। तब उस मायावी मुनिने राजाके मनका भाव जाननेकी इच्छासे, मेघके गर्जनको भी मात कर देने वाली गलेकी आवाजके साथ जो कुछ खाया पिया था वह सब वमन कर दिया । 'यह बड़ा बुरा हुआ जो मुझ अभागेके घर भोजन करनेसे मुनिराजको वमन हो गया। इस प्रकार अपनेको अनिष्ट चेष्टाओंसे युक्त मानकर वह राजा अपनी निन्दा करते हुए, मायामयी मक्खियों के झुण्डसे आक्रान्त उस साधुके मुखसे निरन्तर बहने वाली लारसे सने हुए अन्नको, लक्ष्मीके निवासस्थान कमलके समान सौन्दर्यशाली अपनी अञ्जलिसे उठा-उठाकर भूमिमें फेंकने लगा। फिर वमन किये हुए दुर्गन्धित अन्नपर मूर्छा आजानेके कारण एक दम गिर पड़े साधुके शरीरको बड़े श्रमके साथ अपने हाथोंमें उठाकर अपने दुपट्टेके कोनेको जलमें भिगोकर उससे उसे धोने लगा। तथा पगचम्पी वगैरह व दयापूर्ण शब्दोंके द्वारा वह साधुको ढाढस बधाने लगा। राजाके इस सेवाभावको देखकर मुनि वेषधारी उस देवके प्रमोदरूपी जलसे परिपूर्ण हृदय रूपी क्यारीमें प्रीतिरूपी लता लहलहाने लगी। वह सोचने लगा-'सम्यग्दर्शनका वर्णन सुननेके लिए उत्कण्ठित देवताओंकी सभामें, दूसरोंके गुणोंको ग्रहण करनेका आग्रह रखने वाले इन्द्रने तीनों लोकोंमें अपने नामको ख्यात करनेवाले यथोक्त सम्यक्त्वके आराधक इस राजाके सम्बन्धमें जैसा कहा था वैसा ही इस महाभागको मैंने पाया । ऐसा सोचकर उसने अपना असली रूप प्रकट कर दिया । और अमर तरु के पुप्पोंकी वर्षा, दुन्दुभिके आनन्दपूर्ण नाद तथा दूसरोंके आदर-सत्कारके अवसरपर किये जाने वाले अन्य महान् उपचारोंके द्वारा राजाका बड़ा सम्मान किया और उसे पाठमात्रसे सिद्ध होनेवाली अनेक विद्याएँ तथा वस्त्र वगैरह देकर स्वर्गलोकको चला गया। १. विवर । २. निर्विघ्नं वान्तः । ३. मन्दभागस्य- अ० ज० । ४. इत्यपकृष्ट-ब० । निन्दनीय चेष्टा । ५. लक्ष्मी निवास । ६. त्यक्तवान् । ७. ओदनसमूहे। ८. माया भ्रमण । -भर्मिभ्रम-आ० । ९. बल। १०. तत्पश्चात् । ११. देव । १२. श्लाघितः । १३. दृष्टः । १४. देव। १५. मंत्रपाठमात्रेण स्वाधीनविद्योपदेशसहितर्वस्त्रैः।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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