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________________ उपासकाध्ययन -१५४ ] विहितविघ्नावपि तमेकाग्रभावाभ्यासात्मसात्कृतान्तःकरणबहिःकरणेहितं शर्महर्म्यनिर्माणकार्मणपरमाणुप्रबन्धनाद्धर्मध्यानाञ्चालयितुं न शेकतुः। संजाते च खरकिरणविरोकनिकरनिराकृतान्धकारोदये प्रभातसमये समुपहृतोपसर्गव! प्रकामप्रसन्नसर्गौ तैस्तैर्महाभोगाचितैः प्रणयोदितैराश्लाघ्य तस्मै जिनदत्ताय विहायोविहाराय पञ्चत्रिंशद्वर्णानवद्यां विद्यां वितेरंतुः । इयं हि विद्या तवास्मदनुग्रहादम्बरविहारायासंसाधितापि भविष्यति परेषां त्वस्माद्विधेरिति ।। जिनदत्तोऽपि कुलशैलशिखण्डमण्डनजिनायतनालोकनकुतूहलिताशयः समाचरितामरानुवर्तनसमयस्ता विद्यां प्रतिपद्य हृदयदर्शनोत्सवसमानीतनिखिलनिलिम्पोचलचैत्यालयस्तदवलोकनकृतकौतुकाय धरसेनाय परमाप्तोपासनपटवे पुष्पवटवे प्रादात् । पुनरप्यमितप्रभः 'विद्युत्प्रभ, जिनदत्तोऽयमतीवार्हदभिमतवस्तुपरिणतचित्तः स्वभावादेव च स्थिरमतिरशेषोपसर्गसहनप्रकृतिश्च । तदत्र महदप्यपकृतं कुलिशे घुणकीटचेष्टितमिव न भवति समर्थम् । अतोऽन्यमेव कञ्चनाभिनवजिनोपासनायतनचैतन्यं निकषाव' इति विमृश्योच्चलिताभ्यामेताभ्यां मगधमण्डलमण्डनसनाथो मिथिलापुरीनाथः पद्मरथो नाम नरपतिर्निजनगरनिकटतटीधरवृत्तदेहायां कालगुहायां निवासरसमनसो दीप्ततपसो निःशेषानिमिषपरिषनिषेव्यमाणाचरणचातुर्यात्सुधर्माचार्यात्तदङ्गाद्भुतप्रभाप्रभावदर्शनोलिए रातभर दोनोंने विघ्न किये, किन्तु एकाग्रताके अभ्याससे अपने मनको वशमें कर लेनेवाले उस जिनदत्त श्रावकको वे सुखका महल बनानेवाले कर्म परमाणुओंके बन्धमें कारणभूत धर्मध्यानसे विचलित नहीं कर सके । इतनेमें प्रभात हो गया, सूरजकी किरणोंके प्रकाशसे अन्धकार दूर हो गया। तब उन्होंने अपने उपसगोंको समेट लिया और अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए भाग्यशालियोंके योग्य प्रेमभरे वचनोंसे जिनदत्तकी प्रशंसा करके उसे आकाशमें बिहार करनेके लिए पैतीस अक्षरोंकी एक निर्दोष विद्या प्रदान की । और कहा-'यह विद्या बिना साधे ही हमारे प्रभावसे तुम्हें आकाशमें विहार करा सकेगी और दूसरोंको अमुक विधिसे सिद्ध करनेपर विहार करा सकेगी।' ___ जिनदत्तका मन भी कुलाचलोंपर स्थित जिनालयोंके दर्शनके लिए आकुल था । अतः उसने देवताओंके कहे अनुसार उस विद्याको ग्रहण करके सब कुलाचलोंपर स्थित चैत्यालयोंका दर्शन किया और फिर वह विद्या उन चैत्यालयोंके दर्शनके लिए उत्सुक, जिनेन्द्र देवके परम भक्त धरसेनको दे दी। फिर अमितप्रभ विद्युत्प्रमसे बोला-'विद्युत्प्रभ ! इस जिनदत्तका चित्त अर्हन्त भगवान्के द्वारा कहे गये वस्तु तत्त्वके विषयमें बहुत दृढ़ है तथा यह स्वभावसे ही स्थिर बुद्धि और समस्त उपसगोंको सहन करनेवाला है । इसलिए जैसे घुनके कीड़े वज्रमें कुछ भी नहीं कर सकते वैसे ही कितना भी अपकार इसका कुछ भी बिगाड़नेमें समर्थ नहीं है। अतः आओ जैन धर्मके किसी नये उपासककी परीक्षा करें ।' ऐसा विचार कर दोनों वहाँ से चल दिये और मगध देशके मण्डन स्वरूप मिथिलापुरीमें पहुँचे । मिथिलापुरीका राजा पद्मरथ था । एक दिन वह राजा अपने नगरके निकटवर्ती पहाड़की भयानक गुफामें रहनेवाले, महातपस्वी, समस्त देवोंसे सेवनीय और आच १. रश्मि। २. अभिप्रायो। ३. दत्तवन्तौ। ४. पंचापि मेरु। ५. वज्रे। ६. परीक्षावहे । ७. पद्मरथराजा दृष्टः ।।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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