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________________ -१३५ ] उपासकाध्ययन विकारे विदुषां द्वेषो नाविकारानुवर्तने । तन्नग्नत्वे निसर्गोत्थे को नाम पिकल्मपः ॥१३१॥ नैष्किचन्यमहिंसा च कुतः संयमिनां भवेत् । ते संगाय यदीहन्ते वल्कलाजिनवाससाम् ॥१३२॥ न स्वर्गाय स्थिते तिर्न श्वभ्रायास्थितेः पुनः । किं तु संयमिलोकेऽस्मिन्सा प्रतिज्ञार्थमिप्यते ॥१३३॥ पाणिपत्रं मिलत्येतच्छक्तिश्च स्थितिभोजने । यावत्तावदहं भुजे रहस्याहारमन्यथा ॥१३४॥ अदैन्यासंगवैराग्यपरीपहकृते कृतः। अत एव यतीशानां केशोत्पाटनसद्विधिः ॥१३५॥ इत्युपासकाध्ययन आगमपदार्थपरीक्षो नाम तृतीयः कल्पः । [ अब मुनियोंकी नग्नताका समर्थन करते हैं-] विद्वान् लोग विकारसे द्वेष करते हैं, अविकारतासे नहीं । ऐसी स्थितिमें प्राकृतिक नग्नतासे किस बातका द्वेष ? यदि मुनिजन पहिरनेके लिए वल्कल, चर्म अथवा वस्त्रकी इच्छा रखते हैं तो उनमें नैकिचन्य-मेरा कुछ भी नहीं है ऐसा भाव तथा अहिंसा कैसे सम्भव है ? अर्थात् वस्त्रादिककी इच्छा रखनेसे उससे मोह तो बना ही रहा तथा वस्त्रके धोने वगैरहमें हिंसा भी होती ही है ॥१३१-१३२॥ [अब मुनियोंके खड़े होकर आहार ग्रहण करनेका समर्थन करते हैं-] बैठकर भोजन करनेसे स्वर्ग नहीं मिलता और न खड़े होकर भोजन करनेसे नरकमें जाना पड़ता है । किन्तु मुनिजन प्रतिज्ञाके निर्वाह के लिए ही खड़े होकर भोजन करते हैं । मुनि भोजन प्रारम्भ करनेसे पूर्व यह प्रतिज्ञा करते हैं कि-'जबतक मेरे दोनों हाथ मिले हैं और मेरेमें खड़े होकर भोजन करनेकी शक्ति है तबतक मैं भोजन करूँगा अन्यथा आहारको छोड़ दूंगा । इसी प्रतिज्ञाके निर्वाहके लिए मुनि खड़े होकर भोजन करते है ॥१३३-१३४॥ भावार्थ-मुनि खानेके लिए नहीं जीते, किन्तु जीनेके लिए खाते हैं। जैसे गाड़ीको ठीक चलानेके लिए उसे औंघ देते हैं वैसे ही इस शरीररूपी गाड़ीके ठीक तरहसे चलते रहनेके लिए मुनि इसे उतना ही आहार देते हैं जितनेसे यह शरीर चलता रहे और मुनिके स्वाध्याय ध्यान वगैरह कार्योंमें उससे कोई बाधा उपस्थित न हो। इसलिए तथा आत्मनिर्भर बने रहनेके लिए वे खड़े होकर और बायें हाथ की कनकी अंगुलीमें दायें हाथकी कनकी अंगुलि दबाकर बनाये गये हस्तपुटमें भोजन करते हैं। श्रावक एक-एक ग्रास उसकी बाई हथेली पर रखता जाता है और वे उसे शोधकर दायें हाथकी अंगुलियोंसे मुँहमें रखते जाते हैं। खड़े होकर भोजन करनेसे आत्मनिर्भरता बनी रहती है, भोजनमें अलौल्यता रहती है और परिमित आहार होता है तथा हाथमें भोजन करनेसे एक तो पात्रकी आवश्यकता नहीं रहती, दूसरे यदि शोधकर खाते समय भोजनमें अन्तराय हो जाता है तो बहुत सा भोजन खराब नहीं होता, अन्यथा भरी थाली भी छोड़ना पड़ सकती है । अतः खड़े होकर हाथमें भोजन करना मुनिके लिए विधेय है। [अब केशलोंचका समर्थन करते हैं--] अदीनता, निष्परिग्रहपना, वैराग्य और परीषहके लिए मुनियोंको केशलोंच करना बतलाया है ॥१३५॥
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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