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________________ -१२५ ] उपासकाध्ययन अथ मतम् नैव लग्नं जगत्वापि भूभूधाम्भोधिनिर्भरम् । धातारश्च न युज्यन्ते मत्स्यकूर्माहिपोत्रिणः ॥१२॥ एवमालोच्य लोकस्य निरालम्बस्य धारणे । कल्प्यते पवनो जैनैरित्येतत्साहसं महत् ॥१२२॥ यो हि वायुर्न शक्तोऽत्र लोष्टकाष्ठादिधारणे। त्रैलोक्यस्य कथं स स्याद्धारणावसरक्षमः ॥१२३॥ तदसत् । ये लावयन्ति पानीयैर्विष्टपं सचराचरम्। मेघास्ते वातसामर्थ्यार्तिक न व्योनि समासते ॥१२४॥ प्राप्तागमपदार्थेष्वपरं दोषमपश्यतः अमजनमनाचामो नग्नत्वं स्थितिभोजिता। मिथ्यादृशो वदन्त्येतन्मुनेदोषचतुष्टयम् ॥१२५॥ उनका साधारण आधार आकाश द्रव्य है ही, अतः उन्हें भी किसी अन्य आधारकी आवश्यकता नहीं है। अब रह गये मूर्तिक पदार्थ. सो उनका भी साधारण आधार तो आकाश ही है तथा दूसरा आधार वायु है । वायु तीन प्रकारकी है घनोदधिवातवलय, घनवातवलय और तनुवातवलय । वलय चूड़ी या कड़े को कहते हैं जो गोल होते हैं । जैसे कड़ा हाथमें पहिरनेपर वह हाथको चारों ओरसे घेर लेता है वैसे ही लोकको चारों ओरसे तीनों वायु घेरे हुए हैं इस लिए उन्हें वातवलय कहा है । ये वातवलय ही पृथ्वी वगैरहको धारण करनेमें सहायक हैं। जैनोंकी इस मान्यतापर दूसरे आक्षेप करते हुए कहते हैं-पृथ्वी, पहाड़, समुद्र वगैरहके भारसे लदा हुआ यह जगत् किसीके भी आधार नहीं है, तथा मच्छ, कच्छप, वासुकीनाग और शूकर इसके धारणकर्ता हो नहीं सकते। ऐसा विचार करके जैन लोग इस निरालम्ब जगत्का धारणकर्ता वायुको मानते हैं । किन्तु यह उनका बड़ा साहस है, क्योंकि जो वायु हमारे देखनेमें इंट पत्थर लकड़ी वगैरहका भी बोझ सम्हालने में असमर्थ है, वह तीनों लोकोंको धारण करने में कैसे समर्थ हो सकता है ? ॥१२१-१२३॥ । किन्तु उनका यह आक्षेप ठीक नहीं है, क्योंकि जो मेघ पानीके द्वारा चराचर जगत्को जलमय बना देते हैं, वे वायुके द्वारा ही क्या आकाशमें नहीं ठहरे रहते १ ॥१२४॥ भावार्थ-आज कल तो हजारों टन बोझा लेजाने वाले वायुयान वायुके सहारे ही आकाशमें उड़ते हुए पाये जाते हैं । अतः वायुमें बड़ी शक्ति है और वही लोकको धारण करनेमें समर्थ है। मच्छ कछुवे आदिको जो पुराणोंमें पृथ्वीका आधार माना गया है. वह विज्ञान सम्मत नहीं है। जैन मुनियोंपर दोषारोपण जैन आप्त, जैन आगम और उनके द्वारा कहे हुए पदार्थोंमें अन्य दोष न पाकर कुछ लोग जैन मुनियोंमें दोष लगाते हैं । वे कहते हैं कि जैनोंके साधु स्नान नहीं करते, आचमन नहीं करते, नंगे रहते हैं और खड़े होकर भोजन करते हैं । इन दोषोंका समाधान इस प्रकार है।।१२५।। . १. पर्वत। २. सूकरः । ३. भुवनम् ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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