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________________ -११८ ] उपासकाध्ययन अथवा। एकान्तसंशयाशानं व्यत्यासविनयाश्रयम् । भवपक्षाविपक्षत्वान्मिथ्यात्वं पञ्चधा स्मृतम् ॥११६॥ अवतित्वं प्रमादित्वं निर्दयत्वमतृप्तता। इन्द्रियेच्छानुवर्तित्वं सन्तः प्राहुरसंयमम् ॥११७॥ कषायाः क्रोधमानाद्यास्ते चत्वारश्चतुर्विधाः। संसारसिन्धुसंपातहेतवः प्राणिनां मताः ॥११८।। द्वारा कहे गये पदार्थोंका श्रद्धान न करना, २. विपर्यय और ३. संशय । अथवा मिथ्यात्वके पाँच भेद भी हैं-एकान्त मिथ्यात्व, संशय मिथ्यात्व, अज्ञान मिथ्यात्व, विपर्यय मिथ्यात्व और विनय मिथ्यात्व । ये पाँचों प्रकारका मिथ्यात्व संसारका कारण है ॥११५-११६॥ __भावार्थ-मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन सम्यग्दर्शनका विरोधी है, उसके रहते हुए आत्मामें सम्यक्त्व गुण प्रकट नहीं हो सकता । उसके पाँच भेद हैं । अनेकान्तात्मक वस्तुको एकान्त रूप मानना एकान्त मिथ्यात्व है,जैसे आत्मा नित्य ही है या अनित्य ही है । सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्ष के कारण हैं या नहीं, इस प्रकारके सन्देहको संशय मिथ्यात्व कहते हैं। देवादिकके स्वरूपको न जानना अज्ञान मिथ्यात्व है, इसके रहते हुए जीव हित और अहितका भेद नहीं कर पाता । झूठे देव, झूठे शास्त्र और झूठे पदार्थोंको सच्चा मानकर उनपर विश्वास करना विपर्यय मिथ्यात्व है और सभी धर्मों, और उनके प्रवर्तकोंको तथा उनके द्वारा कहे गये आचार विचारको समान मानना विनय मिथ्यात्व है। असंयमका स्वरूप व्रतोंका पालन न करना,अच्छे कामोंमें आलस्य करना, निर्दय होना, सदा असन्तुष्ट रहना और इन्द्रियोंकी रुचिके अनुसार प्रवृत्ति करना इन सबको सज्जन पुरुष असंयम कहते हैं ॥११॥ कषायके भेद क्रोध, मान, माया और लोभके भेदसे कषाय चार प्रकारकी कही है। इनमेंसे प्रत्येकके चार चार भेद हैं-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ । ये कषायें प्राणियोंको संसाररूपी समुद्रमें गिरानेमें कारण हैं ॥११॥ ___ भावार्थ-कष धातुका अर्थ घातना है। ये क्रोध, मान, माया और लोभ आत्माके गुणोंको घातते हैं इसलिए इन्हें कषाय कहते हैं। उनके चार दर्जे हैं । जो कषाय मिथ्यात्वके साथ रहकर जीवके संसारका अन्त नहीं होने देती उसे अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं। इस कषायका उदय होते रहते सम्यक्त्व गुण प्रकट नहीं होता। जो कषाय अप्रत्याख्यान अर्थात् देशचारित्रको नहीं होने देती उसे अपत्याख्यानावरण कहते हैं। जिस कषायका उदय रहते प्रत्याख्यान अर्थात् सम्पूर्ण चारित्र प्रकट नहीं होता उसे अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं। और जिस कषायका उदय रहते यथाख्यात चारित्र प्रकट नहीं होता उसे संज्वलन कहते हैं । इस प्रकार ये कषायें आत्माके सम्यक्त्व और चारित्र गुणकी घातक १. विपर्यय । २. अनन्तानुबंध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यान-संज्वलनभेदेन ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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