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________________ सोमदेव विरचित [ श्लो० ७३निर्बीजतेव तन्त्रेण यदि स्यान्मुक्तताङ्गिनि । बीजवत्पावकस्पर्शः प्रणेयो मोक्षकांक्षिणि ॥७३॥ विषसामर्थ्यवन्मन्त्रात्तयश्चेदिह कर्मणः । तर्हि तन्मन्त्रमान्यस्य न स्युर्दोषा भवोद्भवाः ॥७४॥ ग्रहगोत्रगतोऽप्येष पूषा पूज्यो न चन्द्रमाः । अविचारिततत्त्वस्य जन्तोवृत्तिनिरङ्कशा ॥७५।। द्वताद्वैताश्रयः शाक्यः शंकरानुकृतागमः। कथं मनीषिभिर्मान्यस्तरसासवशक्तधी ॥७६॥ अथैवं प्रत्यवतिष्ठासवो-भवतां समये किल मनुजः सन्नाप्तो भवति तस्य चाप्ततातीव दुर्घटा संप्रति संजातजनवद् भवतु वा, तथापि मनुष्यस्याभिलषिततत्त्वावबोधो न स्वतस्तथास्वरूपका भान प्रकट होता है। २ शाक्त उपाय-इसमें दीक्षाके क्रमसे प्राप्त हुए मंत्रको भावनाके द्वारा सिद्धि करके स्वरूपका भान करनेका क्रम बतलाया है। ३ आणव उपाय-इसमें बद्ध जीवका दीक्षा क्रमके द्वारा शोधन करके जप, होम, पूजन, ध्यान वगैरह क्रियाकाण्डके द्वारा स्वरूपका भान करनेकी पद्धति होती है। इन तीन उपायोंमेंसे दूसरे और तीसरे उपायका वर्णन करनेमें शेवदर्शन शाक्तदर्शन रूप ही पड़ता है । शाक्तदर्शनका मुख्य प्रयोजन शब्द ब्रह्मको ज्ञानकी मर्यादामें लाना है। इसमें यन्त्र तन्त्र और मंत्रकी बहुतायत होती है । इष्टदेवताके स्वरूपको मर्यादामें अंकित करनेवाली बाह्य प्राकृतिको यंत्र कहते हैं। उस देवताके नाम, रूप, गुण और कर्मको लेकर पूजन वगैरहकी पद्धतिका वर्णन करनेवाले शास्त्रको तन्त्र कहते हैं और उसके रहस्यके बोधक शब्दोंको मंत्र कहते हैं। यहाँ ग्रन्थकार तन्त्र मंत्रसे मुक्ति होनेके विचारकी आलोचना करते हैं-यहाँ इतना और बतला देना आवश्यक है कि तंत्र साधनामें स्त्री एक आवश्यक साधन माना जाता है। और मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन इन पाँच मकारोंका सेवन भी किया जाता है।] . ... जैसे अग्निके स्पर्शसे बीज निर्बीज हो जाता है उसमें उत्पादन शक्ति नहीं रहती, वैसे ही यदि तंत्र के प्रयोगसे ही प्राणीकी मुक्ति हो जाती है तो मुक्ति चाहनेवाले मनुष्यको भी आगका स्पर्श करा देना चाहिए जिससे बीजकी तरह वह भी जन्म मरणके चक्रसे छूट जाये ॥७३॥ जैसे, मंत्रके द्वारा विषकी मारणशक्तिको नष्ट कर दिया जाता है, वैसे ही मंत्रके द्वारा यदि कोंका भी क्षय हो जाता है तो उन मंत्रोंके जो मान्य हैं उनमें सासांरिक दोष नहीं पाये जाने चाहिये ॥७४॥ [इस प्रकार शाक्त मतकी आलोचना करके ग्रन्थकार सूर्य पूजाकी आलोचना करते हैं ] ग्रहोंके कुलका होनेपर भी यह सूर्य तो पूज्य हैं और चन्द्रमा पूज्य नहीं है ? ठीक ही है जिस जीवने तत्त्वका विचार नहीं किया, उसकी वृत्ति निरंकुश होती है ।।७५॥ [अब बौद्ध मतकी आलोचना करते हैं ] बौद्धमत एक ओर द्वैतवादी है अर्थात् संयम और भक्ष्याभक्ष्य आदिका विचार करता है और दूसरी ओर अद्वैतवादी है, अर्थात् सर्व कुछ सेवन करनेकी छूट देता है । उसीके आगमका अनुकरण शंकराचार्यने किया है। ऐसा मद्य और मांसका प्रेमी मत बुद्धिमानोंके द्वारा मान्य कैसे हो सकता है ? ॥६॥ ___ १. 'गम्यागम्ययोः प्रवृत्तिपरिहारबुद्धिः द्रुतम् । सर्वत्र प्रवृत्तिनिरङ्कुशत्वमद्वैतम्' । २. पूर्वपक्षचिकीर्षवः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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