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________________ -३५] उपासकाध्ययन न्यक्षवीक्षाविनिर्मोक्षे मोक्षे किं मोक्षिलेक्षणम् । न धम्नावन्यदुष्णत्वालक्ष्म लक्ष्यं विचक्षणैः ॥३३॥ किं च सदाशिवेश्वरादयः संसारिणो मुक्ता वा ? संसारित्वे कथमाप्तता ? भुक्तत्वे 'केशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरस्तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्' इति पतञ्जलिजल्पितम्' "ऐश्वर्यमप्रतिहतं सहजो विराग स्तृप्तिनिसर्गजनिता वशितेन्द्रियेषु । आत्यन्तिकं सुखमनावरणा च शक्ति निं च सर्वविषयं भगवस्तवैव" ॥३४॥ इत्यवधूताभिधानं च न घटेत। अनेकजन्मसंततेर्यावदद्याक्षयः पुमान् । यद्यसौ मुक्त्यवस्थायां कुतः क्षीयेत हेतुतः ॥३५॥ [अब प्राचार्य मुक्तिमें आत्माके विशेष गुणोंका विनाश माननेवाले कणाद मतानुयायियोंकी आलोचना करते हैं-] ११. यदि आप यह मानते हैं कि मुक्तिमें सांसारिक सुख-दुःख नहीं है तो इसमें कोई हानि नहीं है,यह बात तो हमको भी इष्ट ही है। किन्तु यदि आत्माके समस्त पदार्थविषयक ज्ञानके विनाशको मोक्ष मानते हैं तो फिर मुक्तात्माका लक्षण क्या है ? क्योंकि विद्वान् लोग वस्तुके विशेष गुणोंको ही वस्तुका लक्षण मानते हैं, जैसे आगका लक्षण उष्णता है, यदि आगकी उष्णता नष्ट हो जाये तो फिर उसका लक्षण क्या होगा ? फिर तो आगका ही अभाव हो जायेगा; क्योंकि विशेष गुणोंके अभावमें गुणीका भी अभाव हो जाता है। अतः यदि मुक्तिमें आत्माके ज्ञानादि विशेष गुणोंका अभाव माना जायेगा तो आत्माका भी अभाव हो जायेगा ॥३२-३३॥ तथा आपके सदाशिव ईश्वर वगैरह संसारी हैं या मुक्त ? यदि संसारी हैं तो वे जाप्त नहीं हो सकते । यदि मुक्त हैं तो 'क्लेश, कर्म, कर्मफलका उपभोग और उसके अनुरूप संस्कारोंसे रहित पुरुष विशेष ईश्वर है। उस ईश्वरमें सर्वज्ञताका जो बीज है वह अपनी चरम सीमाको प्राप्त है अर्थात् वह पूर्णज्ञानी है' । पतञ्जलिका यह कथन, और 'हे भगवन् ! आपमें अविनाशी ऐश्वर्य है, स्वाभाविक विरागता है, स्वाभाविक सन्तोष है, स्वभावसे ही आप इन्द्रियजयी हैं। बापमें ही अविनाशी सुख, निरावरण शक्ति और सब विषयोंका ज्ञान है ॥३४॥ अवधूताचार्यका यह कथन घटित नहीं हो सकता है। [इस प्रकार कणाद मतके अनुयायियोंकी आलोचना करके प्राचार्य बौद्धोंकी आलोचना करते हैं -] १२. यदि पुरुष अनेक जन्म धारण करनेपर भी आज तक अक्षय है, उसका विनाश नहीं हुआ तो मुक्ति प्राप्त होनेपर उसका विनाश किस कारणसे हो जाता है ? ॥३५॥ १. समग्रपदार्थावलोकनविनाशलक्षणे । २. आत्मनः लक्षणम् । ३. मत्वा-ज० । ४. लक्ष्यवि-० । ५. योगसूत्र १, २४-२६ । ६. यशस्तिलकके आश्वास ४ और ५ में भी यह श्लोक उद्धृत है। वहां भी इसे अवधूतका बतलाया है। प्रमेयरत्नमाला (पृ० ६३ ) में भी अवधूतके नामसे उद्धृत है। ७. चेत्पूर्व बहूनि जन्मानि जीवेन गृहीतानि अद्यापि विनाशो न संजातः । तहि मोक्षगमने सति कस्बालारणाप्त क्षीयेत-क्षयं याति ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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