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________________ उपासकाध्ययन स्थानमें देशावकाशिकको स्थान दिया है। ३. आदिपुराण भी कुन्दकुन्दको ही परम्पराको अपनाता है, अन्तर इतना है कि उसमें गुणव्रत तत्त्वार्थ सुत्रके अनुसार गिनाकर भी भोगोपभोगपरिमाणको गणव्रत माननेका भी उल्लेख किया है। हरिवंशपुराणमें भी गुणवत तो तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार बतलाये हैं किन्तु शिक्षाव्रत चारित्रप्राभूतके अनुसार बतलाये हैं। ४. चारित्रप्राभूतके सामने तत्त्वार्थसूत्रने दूसरी ही परम्परा स्थापित की, जिसका अनुसरण उत्तरकालमें अधिक किया गया है। दूसरे प्रकारसे इस वर्गीकरणका विश्लेषण इस प्रकार भी किया जा सकता है१. दिग्वत और अनर्थदण्डव्रतको गणव्रत सबने माना है तथा सामायिक, प्रोषधोपवास और अतिथिसंविभाग को शिक्षाव्रत वसूनन्दिके सिवा सबने माना है। वसुनन्दि सामायिक और प्रोषधोपवासके स्थानमें भोगविरति और परिभोगविरति पढ़ते हैं। एक भोगोपभोगपरिमाणवतके दो भेद इस तरह अन्य किसी भी ग्रन्थमें हमारे देखने में नहीं आये। २. शेष रह जाते हैं- देशवत, भोगोपभोगपरिमाण और सल्लेखना। कुन्दकुन्द देशवत मानते ही नहीं। समन्तभद्र मानते हैं किन्तु शिक्षावतोंमें उसे गिनते हैं गुणवतोंमें नहीं, जब कि तत्त्वार्थसूत्र में देशव्रतको गुणवतोंके साथ गिना है, यद्यपि उसमें गुणव्रत और शिक्षाव्रत भेद नहीं किये गये। ३. भोगोपभोगपरिमाणप्रतको हरिवंशपुराणके सिवा सबने माना है किन्तु, एक परम्परा उसे गुणवतोंमें गिनती है और दूसरी शिक्षावतोंमें । ४. सल्लेखनाको मानते सभी हैं, किन्तु कुन्दकुन्दको परम्परा उसे शिक्षाव्रतोंमें गिनती है जब कि तत्त्वार्थसूत्र और रत्नकरण्ड दोनों ही उसे अलग रखते हैं। यह हम ऊपर लिख आये हैं कि तत्त्वार्थसूत्रमें उक्त गुणवतों और शिक्षाव्रतोंको शील कहा है और सर्वार्थसिद्धि में उनका कार्य व्रतोंको रक्षा करना बतलाया है। उसीका अनुसरण करते हुए अमृतचन्द्राचार्यने ( पुरुषार्थ., श्लोक १३६ ) लिखा है कि जैसे प्राकारसे नगरकी रक्षा होती है वैसे ही शीलोंसे व्रतोंकी रक्षा होती है इसलिए व्रतोंका पालन करनेके लिए शोलोंको भी पालना चाहिए। यह भी हम पहले लिख आये हैं कि सर्वार्थसिद्धि में आदिके तीन शोलोंकी गुणव्रत संज्ञा तो है किन्तु शेषको शिक्षाबत संज्ञा नहीं है। यही बात हम पद्मपुराणमें तथा भावसंग्रहमें भी पाते हैं । शेष चार शीलोंकी शिक्षाप्रत संज्ञा रत्नकरण्डश्रावकाचारमें, वरांगचरित (१५।१११)में और उपासकाध्ययनमें तथा उसके समकालीन चारित्रसारमें तथा उत्तरकालीन वसुनन्दि श्रावकाचार, सागारधर्मामृत वगैरहमें पाते हैं। रत्नकरण्ड. में गुणवतका लक्षण तो दिया है किन्तु शिक्षावतका लक्षण हमें सागारधर्मामृत में ही देखने को मिलता है। रत्नकरण्ड ( श्लो० ६७ ) के अनुसार गुणोंमें वृद्धि करनेके कारण दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाण गणव्रत हैं। और सागारधर्मामत के अनुसार जो अणुव्रतोंका उपकार करे उसे गुणव्रत कहते हैं और जो अभ्यासके लिए हो उसे शिक्षावत कहते हैं । श्वेताम्बरीय ग्रन्थोंमें यही लक्षण पाया जाता है। गणव्रत और शिक्षाव्रतमें अन्तर बतलाते हए लिखा है कि सामायिक, देशावकाशिक, प्रोषधोपवास और अतिथिसंविभाग ये स्वल्पकालिक होते हैं अतः गुणव्रतोंसे इनका भेद है। गुणव्रत तो प्रायः जीवन पर्यन्त होते हैं। इनमें से भी सामायिक और देशावकाशिक तो प्रतिदिन किये जाते हैं और प्रोषधोपवास तथा अतिथिसंविभाग प्रतिनियत दिन ही किये जाते हैं, प्रतिदिन नहीं किये जाते। पं० आशाधरने भी देशव्रतको शिक्षाव्रत बतलाते हए यही उपपत्ति दी है। उन्होंने लिखा है कि शिक्षा प्रधान होनेसे तथा नियतकालके लिए होनेसे देशव्रत १. ५।१ तथा ५।२४ । २. अमिधानराजेन्द्र में 'सिक्खावयम्वय' शब्द । ३. सागार० अ० ५।२६ की टीका।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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