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________________ उपासकाभ्ययन सागारधर्मामतमें विभिन्न प्रकारसे उसके अतिचार बतलाये हैं । रत्नकरण्डमें नीचे लिखे अतिचार गिनाये हैं, १. अतिवाहन-बैल मनुष्य वगैरह जितनी दूर तक सुखपूर्वक चल सकते हैं, लोभमें आकर उससे अधिक दूर तक उन्हें चलाना। २. अतिसंग्रह- धान्य वगैरह आगे जाकर खूब लाभ देगा इस भावसे लोभमें आकर धान्यादिक वस्तुओंका संग्रह करना। ३. अतिविस्मय- खूब लाभसे उनके बेचनेपर भी खरीदनेवालेको अधिक लाभ होता देख कर खेद करना। ४. अतिलोभ- खूब लाभ होनेपर भी अधिक लाभको इच्छा करना। . ... ५. अतिभारवहन- लोभके कारण मनुष्य या पशुओंपर उनकी शक्तिसे अधिक भार लादना। सागारधर्मामृतमें पांच अतिचार इस प्रकार बतलाये हैं- १. मकान और खेतमें पासका दूसरा मकान और खेत मिला लेना। २. अपने घरका धान्य और पशुधन बेच लेने के बाद यह धान्य और धन ले लूंगा ऐसा विचार कर परिमाणसे अधिक धन और धान्यको बेचनेवालेके घरपर ही रखना। ३. व्रतकी अवधि पूरी होनेपर ये सोना चांदो ले लूंगा इस भावसे परिमाणसे अधिक सोना चांदी दूसरोंको दे रखना। ४. काँसी पीतल वगैरहके बरतनोंको संख्या परिमाणसे अधिक हो जानेपर व्रतभंगके भयसे दो दो बरतनोंको मिलाकर एक करना । ५. परिग्रहपरिमाणवत जितने दिनोंके लिए है उसके अन्दर ही यदि ये गाय वगैरह बच्चा देंगी तो अधिक संख्या हो जानेसे व्रतभंग हो जायेगा इस भयसे अवधिका जब कितना ही काल बीत जाये तब गाय वगरहको ग्याभन होने देना पांचवा अतीचार है। यद्यपि ये अतीचार भी हेमचन्द्राचार्य के योगशास्त्रके आधारपर बतलाये गये हैं फिर भी तत्त्वार्थसूत्रमें जो अतिचार बतलाये हैं यह उनका ही विस्तार है। अतः स्वामी समन्तभद्रके सिवा अन्य सब शास्त्रकारोंके द्वारा बतलाये गये अतिचार समान ही हैं। अष्टमूलगुण और पांच अणुव्रतोंके उक्त तुलनात्मक अनुशीलनसे हम इस निष्कर्षपर पहुँचते हैं कि जैन आचारका मूल अहिंसा है। उस अहिंसाको व्यवहारमें लानेके लिए ही अष्टमूलगुण और शेष चार अणुव्रत बतलाये गये हैं। चूंकि गला-सड़ा अन्न, बासी भोजन तथा अन्य संयोग विरुद्ध पदार्थोंका भक्षण करनेसे मांस और मद्यके सेवनका दोष लगता है अत: ऐसे खान-पानको निषिद्ध बतलाया गया। और इसपर बहत अधिक जोर दिया गया। मेरा ऐसा विचार है कि पंच अणव्रतवाले प्राचीन मलगणोंमें पांच पापोंके स्थानमें जो पंच उदुम्बरको स्थान दिया गया, इसने जैनाचारकी दिशाको ही बदल दिया, क्योंकि पांच उदुम्बर और तीन मकारके त्यागरूप अष्टमूलगुण केवल खान-पानसे सम्बन्ध रखते हैं, जब कि पांच अणुव्रत समस्त गाहस्थिक व्यवहारसे सम्बद्ध हैं, अतः जैन गृहस्थ लोग खान-पानसम्बन्धी आचारकी ओर तो विशेष ध्यान देने लगे और सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह परिमाणके प्रति उदासीन होते चले गये। उन्होंने केवल शुद्ध खान-पानको ही अहिंसाका अंग समझा और उत्तर कालमें यही लोगोंको समझाया भी गया । हमारे त्यागीवर्गका भी दृष्टिकोण उसी ओर रहा और वर्तमानमें भी है। वे भी जब किसी श्रावक या श्राविकासे त्याग कराते हैं तो खाने-पीने की वस्तुओंका ही त्याग कराते हैं। हमने किसीको भी सत्यव्यवहार करनेको, लेन-देन में बेईमानी न करनेकी, कसकर सूद न लेनेकी, न्यायसे धन उपाजित करनेको, स्वदारसन्तोष. व्रत धारण करनेकी या जरूरतसे अधिक संचय न करने की प्रतिज्ञा लेते या लिवाते नहीं देखा। अणव्रतोंके अतिचार मनुष्यकी कमजोरियोके या यह कहना होगा कि उसकी चालाक बद्धिके जीवित उदाहरण हमारे सामने रखते हैं। और उनका तुलनात्मक अनुशीलन सामयिक परिस्थितिपर तथा हमारे आचार्योंकी समयदर्शितापर अच्छा प्रकाश डालता है।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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