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________________ श्लोक १५८-१६२ ] . . पुरुषार्थसिद्धय पायः । . भोगोपभोगमूला विरताविरतस्य नान्यतो हिंसा । अधिगम्य वस्तुतत्त्वं स्वशक्तिमपि तावपि त्याज्यो ।।१६१।। अन्वयाथों-[विरताविरतस्य ] देशव्रती श्रावकके [ भोगोपभोगमूला ] भोग और उपभोगोंके २ निमित्तसे होनेवाली [हिंसा ] हिंसा होती है, [अन्यतः न ] अन्य प्रकारसे नहीं होती, अतएव [ तौ ] वे दोनों अर्थात् भोग और उपभोग [ अपि ] भी [ वस्तुतत्त्वं ] वस्तुस्वरूपको [अपि] और [ स्वशक्तिम् ] अपनी शक्तिको [ अधिगम्य ] जानकर अर्थात् अपनी शक्तिके अनुसार [त्याज्यौ] छोड़ने योग्य हैं। भावार्थ-गृहस्थके भोगोपभोग पदार्थोके निमित्तसे ही मोक्षकी अन्तरायभूत स्थावरोंकी हिंसाकृत बंध होता है, इसलिये उसको टालने के लिये वस्तुके स्वरूपको जानना चाहिये कि कौनसी वस्तु अधिक पाप करने वाली है पौर कौनसी कम। यह जानने के पश्चात् अपने सामर्थ्य का विचार व अनुभव करके तदनुकूल भोगोपभोगका त्याग करना चाहिये । एकमपि प्रजिघांसुनिहन्त्यनन्तान्यतस्ततोऽवश्यम् । करणीयमशेषाणां परिहररणमनन्तकायानाम् ।।१६२॥ अन्वयार्थी - [ ततः ] क्योकि [ एकम् ] एक साधारण देहको कन्दमूलादिकको [अपि ] भी [प्रजिघांसुः ] घातनेकी इच्छा करनेवाला पुरुष [ अनन्तानि ] अनन्त जीव [ निहन्ति ] मारता है, [प्रतः ] अतएव [ अशेषाणां ] : सम्पूर्ण ही [अनन्तकायानाम् ] अनन्तकायोंका [ परिहरणम् ] परित्याग [ अवश्यम् ] अवश्य ही [ करणीयम् ] करना चाहिये। भावार्थ-साधारण वनस्पति तथा अन्योपदार्थ जो अनन्तकाय होते हैं, अभक्ष्य हैं । यहाँपर यह दिखलाना उपयोगी होगा, कि साधारण वनस्पतिमें जीवों की संख्या कितनी रहती है। ग्रन्थान्तरोंमें इसका परिमाण नीचे लिखे अनुसार कहा है: __"अदरख आदि साधारण वनस्पतियोंमें लोकके जितने प्रदेश हैं उनसे असंख्यातगुणें जीव पाये जाते हैं, जिन्हें स्कन्ध कहते हैं, जैसे-अपना शरीर। इन स्कन्धोंमें असंख्यात लोक परिमित १- जो वस्तु एक बार भोगी जावे उसे भोग कहते हैं, जैसे भोजन, पान, गन्ध, पुष्पादि । २-जो वस्तु बारम्बार भोगी जाये उसे उपभोग कहते हैं, जैसे, स्त्री, शय्या, आसन, वस्त्र, अलङ्कार, वाहनादि । ३-जीव दो प्रकारके होते हैं, एक त्रस दूसरे स्थावर, द्वीन्द्रियादि पचेंद्रियपर्यन्त त्रस और पृथिव्यादि स्थावर कहलाते हैं। स्थावर पाँच प्रकार के होते हैं, पृथ्वी, आप, तेज, वायु और वनस्पति । इनमें से वनस्पति के दोभेद हैं, साधारण और प्रत्येक, साधारण उसे कहते हैं जिसके एक शरीरमें अनन्त जीव पाये जाते हैं और प्रत्येक उसे कहते हैं, जिसके एक शरीर में एक ही जीव पाया जावे। फिर इस प्रत्येकवनस्पति के भी दो भेद होते हैं, एक सप्रतिष्ठित दूसरा अप्रतिष्ठित । प्रत्येक वनस्पति जब निगोदसहित होती है, तब सप्रतिष्ठित और जब निगोद रहित रहती है, तब अप्रतिष्ठित कहलाती है। दूब, बेल, छोटे बड़े वृक्ष और कन्दादि ऐसी वनस्पतियाँ जिनमें लम्बी रेखायें, गांठे (प्रन्थि ), संधिये दृष्टिगोचर न हों, अथवा जो काटनेके पश्चात् पुनः उत्पन्न हो सके, जिनके तन्तु न होवें, अथवा जिनमें तोड़ने पर तन्तु न लगे रहें, सप्रतिष्ठित कहलाती हैं । और जिनमें रेखा, गाँठे, संधियाँ प्रत्यक्ष दिखाई देवें, जो काटने के पश्चात् फिर न उग सकें, जिनके तन्तु होवें, तोड़ने पर तन्तु लगे रहें, उन्हें अप्रतिष्ठित कहते हैं। उपयुक्त सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति को साधारध भी कहते हैं । इस साधारणवनस्पति में अनन्त जीव पाये जाते हैं, इस कारण इसे अनन्तकाय कहते हैं।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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