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________________ श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ ३- प्रनर्थदंड व्रत न्यायार्थी - [ सर्वानर्थप्रथमं ] सप्तव्यसनों का प्रथम अथवा सम्पूर्ण अनर्थीका मुखिया [ शौचस्य मथनं ] संतोषका नाश करनेवाला [ मायाया: ] मायाचारका [ सद्म ] घर और [ चौर्यासत्यास्पदं] चोरी तथा असत्यका स्थान [द्यूतम् ] जुम्रा [दूरात् ] दूरसे ही [ परिहरणीयं ] त्याग कर देना चाहिये । ६२ भावार्थ - खेलनेवाले खेलने में चोरी करते हैं और झूठ बोलते हैं, क्योंकि जब हारते हैं, तब जीतने की तृष्णा या मोहमें चोरी करते तथा असत्य बोलते हैं, और जब जीतते हैं, तब द्रव्यकी प्रचुरतासे वेश्या-गमनादि दुष्कर्म करते हैं, तथा झूठ बोलते और छिपकर चोरी करते हैं । सारांशद्यूतक्रीड़ा पापबंध अधिक होता है, परंतु प्रयोजन की सिद्धि कुछ भी नहीं होती, अतएव यह भी अनर्थदण्ड है। द एवं विधमपरमपि ज्ञात्वा मुञ्चत्यनर्थदण्डं य. । तस्यानिशमनवद्यं विजयमहिंसाव्रतं लभते ।। भन्वयाथ – [ यः ] जो पुरुष [ एवं विधम् ] इस प्रकार के [ अपरमपि २] अन्य भी [ अनर्थदण्डं ] नर्थदण्डों को [ ज्ञात्वा ] जान करके [मुञ्चति ] त्याग करता है, [तस्य ] उसके [ अनवद्य] निर्दोष [हिंसाव्रतं ] हिसाव्रत [ अनिशम् ] निरन्तर [विजयम् ] विजय [ लभते ] प्राप्त करता है । रागद्वे षत्यागान्निखिलद्रव्येषु साम्यमवलम्ब्य । १४७ ।। तत्त्वोपलब्धिमूल बहुशः सामायिकं कार्यम् ॥ १४८ ॥ श्रन्वयार्थी - [ रागद्व ेषत्यागात् ] राग द्वेष के त्यागसे [ निखिलद्रव्येषु ] समस्त इष्ट प्रनिष्ट पदार्थों में [ साम्यम् ] साम्यभावको [ श्रवलम्ब्य ] अगोकार कर [ तत्वोपलब्धि मूलं ] ग्रात्मतत्त्व की प्राप्ति का मूल कारण [ सामायिकं ] सामायिक [ बहुशः कार्यम् | अनेक वार करना चाहिये । भावार्थ - एकरूप होकर स्वरूप में प्राप्त होनेको 'समय' कहते हैं, तथा 'समय' जिसका प्रयोजन होता है उसे 'सामायिक' कहते हैं । उक्त प्रयोजनकी अर्थात् समयकी सिद्धि साम्यभावसे होती है. अतएव साम्यभावका नाम ही सामायिक है और अपनेको सुख देनेवाली इष्ट वस्तुनों में राग तथा दुःख देनेवाली अनिष्ट वस्तुत्रों में द्व ेषके त्यागको साम्यभाव कहते हैं । इस साम्यभाव के होनेपर स्वरूपमें मग्न होना परम कर्तव्य है, कदाचित् यह न हो सके, तो शुभोपगोगरूप भक्ति व तत्त्वविचार में प्रवर्तना चाहिये, अथवा सामायिकसम्बन्धी नमस्कार, आवर्त, शिरोनति आदि क्रियाकाण्ड में तत्पर होना चाहिये । श्रृङ्गोंको भूस्पर्शकर मस्तक के नम्र करने को नमस्कार, हाथ जोड़कर प्रदक्षिणा करने को प्रावर्त्ती और हाथ जोड़कर मस्तक नवानेको शिरोनति कहते हैं । पहिले पथ शोधनापूर्वक तीन प्रवर्त्त करके एक शिरोनति करे, पश्चात् 'रामो अरहंतारणम्' आदि पाठ करके पूर्ण ना में तीन प्रावर्त्त देकर एक शिरोनति करे, फिर कायोत्सर्ग करके तीन, श्रावर्त्तदेकर एक शिरोनति करे । तदुपरान्त 'थोस्सामि' इत्यादि पाठ करके पूर्णता में एक नमस्कार कर तीन प्रावर्त्त १ - जुआ के पश्चात् सब व्यसन प्रकट हो जाते हैं, प्रतएव यह सर्व व्यसनों में प्रथम और मुख्य है । २ - कौतूहलादिकम् । ३- सम= एकरूप होकर श्रयः = स्वरूपमें गमन श्रर्थात् समय । और समय ही है प्रयोजन जिसका सो सामायिक है ।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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