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________________ श्लोक १२७-१३३ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः । ५७ रात्रि और दिनको [ प्रहरतः ] प्रहार करनेवालोंके [हि ] निश्चयकर [ हिंसा ] हिंसा [ कथं ] कैसे [ न संभवत ] संभव नहीं होती ? भावार्थ - जिस जीव के तीव्र राग भाव होते हैं, वह त्याग नहीं कर सकता है, इसलिये जिसको भोजन से अधिक राग होगा, वही रात्रि दिन खावेगा और जहां राग है वहाँ हिंसा अवश्य है । यद्येवं तहि दिवा कर्तव्यो भोजनस्य परिहारः । भोक्तव्यं निशायां नेत्थं नित्यं भवति हिंसा ।। १३१ ।। श्रन्वायार्थी - [ यदि एवं ] यदि ऐसा है अर्थात् सदाकाल भोजन करने में हिंसा है, [ तहि ] तो [दिवा भोजनस्य ] दिनके भोजनका [परिहारः ] त्याग [ कर्त्तव्यः ] करना चाहिये, [तु ] और [ निशायां ] रात्रि में [ भोक्तव्यं ] भोजन करना चाहिये, क्योंकि [ इत्थं ] इस प्रकार से [ हिंसा ] हिंसा [ नित्यं ] सदाकाल [न] नहीं [भवति ] होगी। इसका उत्तर प्रागे कहते हैं । नैवं वासरभुक्तेर्भवति हि रागोऽधिको रजनिभुक्तौ । श्रनकवलस्य भुक्तेर्भुक्ताविव मांसकवलस्य ।। १३२ ।। श्रन्वयार्थी - [ एवं न ] ऐसा नहीं है । क्योंकि, [ श्रन्नकवलस्य ] अन्न के ग्रासके ( कौरके ) [ भुक्त: ] भाजनमे [ मांसकवलस्य ] मांस के ग्रामके [ भुक्तौ इव | भोजनमें जैसे राग अधिक होता है वैसे ही [वासरभुक्त: ] दिनके भोजनसे [रजनिभुक्तौ ] रात्रि भोजन में [हि ] निश्चयकर [ रागाधिक: ] अधिक राग [भवति] होता है । भावार्थ - उदरभरण की अपेक्षा सब प्रकार के भोजन समान हैं, परन्तु अन्नके भोजन में जिस प्रकार साधारण रागभाव है, वैसा मांस भोजन में नहीं है। मांस भोजनमें विशेष रागभाव है, af न्नका भोजन सब मनुष्योंको सहज ही मिलता है, और मांसका भोजन अतिशय कामादिककी अपेक्षा अथवा शरीरादिकके स्नेहकी अपेक्षा विशेष प्रयत्नसे किया जाता है । इसी प्रकार दिनका भोजन सब मनुष्यों के सहज ही होता है, इसलिये उसमें साधारण रागभाव होता है, परन्तु रात्रिके भोजन में शरीरादिक या कामादिक पोषणकी अपेक्षा विशेष रागभाव होता है; अतएव रात्रि भोजनही त्याज्य है । लोकेन विना भुञ्जानः परिहरेत् कथं हिंसाम् । श्रपि बोधितः प्रदीपे भोज्यजुषां सूक्ष्मजीवानाम् ।। १३३ ।। श्रन्वयार्थी- - तथा [ प्रकलोकेन विना ] सूर्यके प्रकाशके विना रात्रिमें [ भुञ्जान: ] भोजन करनेवाला पुरुष [ बोधितः प्रदीपे ] जलाये हुए दीपक में [ श्रपि ] भी [ भोज्यजुषां ] भोजन में मिले हुए [सूक्ष्मजीवानाम् ] सूक्ष्म-जन्तुनोंकी [हिंसा ] हिंसाको [ कथं] किस प्रकार [ परिहरेत् ] दूर कर सकेमा ? भावार्थ - दीपक प्रकाशमें सूक्ष्म जंतु दृष्टिगोचर नहीं हो सकते, तथा रात्रिमें दीपकके प्रकाशसे नाना प्रकार के ऐसे छोटे बड़े जीवों का संचार होता है, जो दिनमे कभी दिखाई भी नहीं देते. प्रतएव रात्रि - भोजन में प्रत्यक्ष हिंसा है, और जो रात्रि-भोजन करेगा, वह हिंसासे कभी नहीं बच सकेगा ।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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