SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५ श्लोक १२१-१२६ ] पुरुषार्थसिद्धच पायः । बिना ही शरीरादिक बाह्य निमित्त पाकर हो सकती है, परन्तु ममत्व अर्थात् मूळ परिग्रहको अंगीकार किये विना सर्वथा नहीं होती। तथा परिग्रहके संग्रहमें ममत्व परिणाम ही कारण होते हैं । अतएव ममत्व परिणामोंके परिहारके लिये बाह्यपरिग्रह त्यागना भी अत्यावश्यक है। तत्त्वार्थाश्रद्धाने नियुक्तं प्रथममेव मिथ्यात्वम् । सम्यग्दर्शनचौराः प्रथमकषायाश्च चत्वारः ।। १२४ ।। अन्वयाथों-[प्रथमम्] पहले [एव] ही [तत्त्वार्थाश्रद्धाने] तत्त्वके ' अर्थके अश्रद्धानमें जिसे [नियुक्तं ] संयुक्त किया है ऐसे [ मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्वको [च ] तथा [ सम्यग्दर्शनचौराः ] सम्यग्दर्शनके चोर [ चत्वारः ] चार [ प्रथमकषायाः ] पहले कषाय अर्थात् अनन्तानुबंधो क्रोध, मान, माया, लोभ: प्रविहाय च द्वितीयान् देश चरित्रस्य सन्मुखायातः । नियतं ते हि कषायाः देशचरित्रं निरुन्धन्ति ।। १२५ ।। अन्वयाथों-[च ] और [ द्वितीयान् ] दूसरे कषाय अर्थात् अप्रत्याख्यानावरणी क्रोध, मान, माया, लोभको [प्रविहाय ] छोड़कर [ देशचरित्रस्य ] देशचारित्रके [ सन्मुखायातः ] सन्मुख पाता है, [ हि ] क्योंकि [ ते ] वे [ कषायाः ] कषाय [नियतं ] निरन्तर [देशचरित्रं] एकोदेशचारित्रको [निरुन्धन्ति] रोकते हैं। भावार्थ-तत्त्वार्थका श्रद्धान न होना ही मिथ्यात्व है। क्रोध, मान, माया, और लोभ ये चार कषाय हैं । इन प्रत्येकके अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरणी, प्रत्याख्यानावरणी और संज्वलन ये चार चार भेद होकर सब सोलह भेद होते हैं। इनमेंसे कषायोंके प्रथम चार भेद अर्थात् अनन्तानुबंधी क्रोध, अनन्तानुबंधी मान, अनन्तानुबंधी माया और अनन्तानुबंधी लोभ ये सम्यग्दर्शनके चोर हैं, क्योंकि इनका क्षय हुए बिना अथवा उपशम हुए विना सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता । अप्रत्याख्यानावरणी क्रोध मान, माया और लोभ एकोदेश चारित्रको (श्रावक व्रतको) रोकते हैं, इसलिये-इन्हें गया ३ वरणी कहते हैं। निजशक्त्या शेषाणां सर्वेषामन्तरङ्गसङ्गानाम् । कर्तव्यः परिहारो मार्दवशौचादिभावनया ॥ १२६ ॥ अन्वयाथों-प्रतएव [निजशक्त्या] अपनी शक्तिसे [मार्दवशौचादिभावनया] मार्दव, शौच, संयमादि दशलाक्षणिक धर्मोके द्वारा [ शेषाणां ] अवशेष [ सर्वेषाम् ] सम्पूर्ण [अन्तरङ्गसङ्गानाम्] अन्तरंग परिग्रहों का [परिहारः] त्याग [कर्तव्यः] करना चाहिये । १-जैसे हिंसाके प्रकरणमें कहा गया है कि किसी पुरुषसे यदि बाह्य हिंसा हो जावे और उसके परिणाम उस हिंसाके करनेसे न हो अर्थात् शुद्ध होवें, तो बह हिंसाका भागी नहीं होता। २-मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व, और सम्यक् प्रकृतिमिथ्यात्व । ३-मईषत्-थोड़ा, प्रत्याख्यान-त्यागको, आवरण-आच्छादित करनेवाला ।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy