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________________ श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ ३- अहिंसा व्रत ऐसा [ प्राकलय्य ] विचार करके [ जातु ] कदाचित् भी [ महासत्त्वस्य ] जङ्गम बड़े जीवका [ हिंसनं ] घात [ न कार्यं ] नहीं करना चाहिये । ४२ भावार्थ - "अन्नादिकके प्राहारमें अनेक जीव मरते हैं, अतएव उनके बदले एक बड़े भारी जीवको मारकर खा लेना अच्छा है" ऐसा कुतर्क करना भी मूर्खतापूर्ण है । क्योंकि हिंसा प्राणघात करनेसे होती है और एकेन्द्रिय जीवोंकी अपेक्षा पंचेन्द्रियके द्रव्यप्राण व भावप्राण अधिक होते हैं, ऐसा सिद्धान्तकारों का मत है, इसलिये अनेक छोटे छोटे जीवोंसे भी बड़े प्राणीके घात में अधिक हिंसा है । जब एकेन्द्रिय जीवके मारनेसे द्वीन्द्रिय जीवके मारने में ही असंख्यगुणा पाप है, तो पंचेन्द्रिय हिंसाका तो कहना ही क्या ? रक्षा भवति बहूनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन । इति मत्वा कर्त्तव्यं न हिंसनं हिंस्रसत्त्वानाम् ॥ ८३ ॥ श्रन्वयार्थी – [ श्रस्य ] " इस [ एकस्य एव ] एक ही [ जीवहरणेन ] जीवघात करनेसे [बहूनाम्] बहुतसे जीवोंकी [रक्षा भवति ] रक्षा होती है" [इति मस्वा] ऐसा मानकर [हिंस्रसत्त्वानाम् ] हिंसक जीवों का भी [ हिंसनं ] हिंसन [ न कर्त्तव्यं ] न करना चाहिये । भावार्थ – “सर्प, बिच्छू, सिंह, गेंडा, तेंदुप्रा आदिक हिंसक जीवोंको जो अनेक जीवोंके घातक हैं, मार डालने से उनके वध्य अनेक जीव बच जायेंगे और उससे पापकी अपेक्षा पुण्यबंध अवश्य होगा ऐसा श्रद्धान नहीं करना चाहिये । क्योंकि, हिंसा जो करता है, वही उसके पापका भागी होता है, ऐसा शास्त्रसे सिद्ध है। फिर उसे मारकर हमको पापोपार्जन किसलिये करना चाहिये ? दूसरे यह भी सोचना चाहिये कि संसारमें जो अनन्त जीव एक दूसरेके घातक हैं, उनकी चिन्ता हम कहाँ तक कर सकते हैं ? बहुतत्त्वघातिनोऽमी जीवन्त उपार्जयन्ति गुरुपापम् । इत्यनुकम्पां कृत्वा न हिंसनीयाः शरीरिणो हिंस्राः ॥ ८४ ॥ श्रन्वयार्थी - [ बहुसत्त्वघातिनः ] "बहुत जीवोंके घाती [ श्रमी ] ये जीव [ जीवन्तः ] जीते रहेंगे तो [ गुरु पापम् ] अधिक पाप [ उपार्जयन्ति ] उपार्जन करेंगे," [ इति ] इस प्रकारकी [ अनुकम्पां कृत्वा ] दया करके [ हिंस्राः शरीरिणः ] हिंसक जीवोंको [ न हिंसनीयाः ] नहीं मारना चाहिये । बहुदुःखासंज्ञपिताः प्रयान्ति त्वचिरेण दुःखविच्छित्तिम् ॥ इति वासनाकृपारणीमादाय न दुःखिनोऽपि हन्तव्याः ।। ८५ ।। अन्वयार्थी – [तु ] और [ बहुदुःखासंज्ञपिताः ] "अनेक दुःखोंसे पीड़ित जीव [ श्रचिरेण ] थोड़े ही समय में [ दुःखविच्छित्तिम् ] दुःखाभावको [ प्रयान्ति ] प्राप्त हो जायेंगे” [ इति वासनाकृपाण ] इस प्रकारकी वासनारूपी या विचाररूपी तलवारको [ आदाय ] लेकर [ दुःखिनोऽपि ] दुःखी जीव भी [ न हन्तव्याः ] नहीं मारने चाहिये ।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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