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________________ ३५ श्लोक ५५-६२ ] पुरुषार्थसिद्धच पायः। .... अन्वयाथों-[ इति ] इस प्रकार [ सुदुस्तरे ] अत्यन्त कठिनाईसे पार किये जानेवाले और [ विविधभङ्गगहने ] नाना भंगोंसे गहन वनमें [ मार्गमूढदृष्टीनाम् ] मार्गमूढदृष्टि पुरुषोंको अर्थात् मार्ग भूले हुए पुरुषोंको [ प्रबुद्धनयचक्रसञ्चाराः ] अनेक प्रकारके नय समूहको जाननेवाले [ गुरवः ] श्रीगुरु ही [ शरणं ] शरण [ भवन्ति ] होते हैं । भावार्थ-हिसाके अनेक भेदोंको वे ही गुरु समझा सकते हैं, जो नयचक्रके अच्छे ज्ञाता हैं । अत्यन्तनिशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् । खण्डयति धार्यमारणं मूर्धानं झटिति दुर्विदग्धानाम् ॥५६॥ अन्वयाथी -[जिनवरस्य] जिनेन्द्रभगवान्का [अत्यन्तनिशितधारं] अत्यन्त तीक्ष्ण धारवाला और [ दुरासदं ] दुस्साध्य [ नयचक्रम् ] नयचक्र [धार्यमारणं] धारण किया हुआ [दुर्विदग्धानाम्] मिथ्याज्ञानी पुरुषोंके [ मूर्धानं ] मस्तकको [झटिति] शीघ्र हो [खण्डयति] खंड खंड कर देता है। भावार्थ-जैनमतके नयभेद समझना बहुत कठिन है, जो मूढपुरुष विना समझे नयचक्रमें प्रवेश करते हैं, वे लाभके बदले हानि उठाते हैं। अवबुध्य हिस्य-हिसक-हिंसा-हिंसाफलानि तत्त्वेन । नित्यमवगूहमा निजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा ।। ६० ॥ अन्वयाथी -[ नित्यम् ] निरन्तर [ अवगूहमानैः ] संवरमें उद्यमवान् पुरुषोंको [ तत्त्वेन ] यथार्थतासे [हिंस्यहिंसकहिंसाहिंसाफलानि] हिंस्य', हिंसकर, हिंसा और हिंसाके फलोंको [अवबुध्य] जानकर [ निजशक्त्या ] अपनी शक्त्यनुसार [ हिंसा ] हिंसा [ त्यज्यतां ] छोड़ना चाहिये । मद्यं मांसं क्षौद्र पञ्चोदुम्बरफलानि यत्नेन । हिंसाव्युपरतिकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव ।। ६१॥ अन्वयाथों--[ हिंसाव्युपरतिकामैः ] हिंसा त्याग करनेकी कामनावाले पुरुषोंको [प्रथममेव] प्रथम ही [यत्नेन] यत्नपूर्वक [मद्य] शराब, [मांसं ] मांस, [क्षौद्रं] शहद और [ पंचोदुम्बरफलानि ] ऊमर, कठूमर, पीपल, बड़, पाकर ये पांचों उदुम्बर फल [ मोक्तव्यानि ] छोड़ देने चाहिए। मचं मोहयति मनों मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम् । विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशङ्कमाचरति ॥ ६२॥ अन्वयाथों-[ मद्य ] मदिरा अर्थात् शराब [ मनो मोहयति ] मनको मोहित करती है, और [ मोहितचित्तः ] मोहितचित्त पुरुष [तु तो [धर्मम्] धर्मको [विस्मरति] भूल जाता है तथा १-हिस्य-जिनकी हिंसा की जावे, ऐसे अपने अथवा परजीवके द्रब्यप्राण और भावप्राण अथवा एकेन्द्रियादिक जीवसमास । २-हिंसक-हिंसा करनेवाला जीव । ३-हिंसा-हिंस्यके प्राणपीड़नकी अथवा प्राणघातकी क्रिया। ४-हिंसाफल-हिंसासे प्राप्त होनेवाले नरक निगोदादिक फल ।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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