SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३ श्लोक १-२-३] पुरुषार्थसिद्धचु पायः। इस प्रकार ग्रन्थकर्ता अमृतचन्द्रसूरि अपने इष्टदेवका स्तवन करनेके पश्चात् इष्टागमको नमस्कार करते हुए कहते हैं परमागमस्य 'जीवं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ २॥ अन्वयाथों-[ निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् ] जात्यन्ध पुरुषोंके हस्ति-विधानका निषेध करनेवाले [ सकलनयविलसितानां ] समस्त नयोंसे प्रकाशित वस्तु स्वभावोंके [ विरोधमथनं ] विरोधोंको दूर करनेवाले [ परमागमस्य ] उत्कृष्ट जैनसिद्धान्तके [ जीवं ] जीवनभूत [अनेकान्तम् ] एकपक्ष रहित स्याद्वादको ( अहम् ) मैं अमृतचन्द्रसूरि [ नमामि ] नमस्कार करता हूँ। भावार्थ-जैसे जन्मके अंधे पुरुष हाथीके पृथक् पृथक् अवयवोंका स्पर्श करके उनसे हाथीका आकार निश्चय करने में वाद-विवाद करते हुए भी कुछ निश्चय नहीं कर सकते, और नेत्रवान पुरुष उनके सब कल्पनाकृत आकारविषयक वादको क्षणमात्रमें दूर कर देता है, उसी प्रकार अज्ञानी लोग वस्तु के अनेक अङ्ग अपनी बुद्धिसे भिन्न भिन्न रीतियोंसे निश्चय करते भी सम्यग्ज्ञान विना सर्वाङ्ग वस्तुको न जानकर परस्पर विवाद करते रहते हैं, परन्तु सम्यग्ज्ञानी स्याद्वाद-विद्याके प्रभावसे यथावत् वस्तुका निर्णय कर भिन्न भिन्न कल्पनाओंको दूर कर देता है, यथा-साङ ख्यमती वस्तुको केवल नित्य और बौद्ध क्षणिक मानता है. परन्तु स्याद्वादी कहता है कि जो सर्वथा नित्य है, तो अनेक अवस्थाअोंका पलटना किस प्रकार होता है ? और जो सर्वथा क्षणिक है तो “यह वही वस्तु है, जो पहिले देखी थी" इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान क्यों होता है ? अतएव पदार्थ द्रव्यकी अपेक्षा कथञ्चित् नित्य और पर्यायकी अपेक्षा क्षणिक है, तथा स्याद्वादसे सर्वाङ्ग वस्तुका निश्चय होनेसे एकान्त श्रद्धानका निषेध होता है। ___नयविवक्षासे वस्तुमें अस्ति नास्ति, एक अनेक, भेद प्रभेद, नित्य अनित्य, आदि अनेक स्वभाव पाये जाते हैं, और उन स्वभावों में परस्पर विरोध ज्ञात होता है, जैसे-'अस्ति' और 'नास्ति' में बिलकुल प्रतिपक्षीपन है, परन्तु उन्हीं स्वभावोंको स्याद्वादसे सिद्ध करने में समस्त विरोध दूर हो जाते हैं । क्योंकि-एक ही पदार्थ कथञ्चित् स्वचतुष्टयकी अपेक्षा अस्तिरूप 'कथञ्चित् परचतुष्टयकी अपेक्षा नास्तिरूप, कथञ्चित् समुदायकी अपेक्षा एकरूप, कथञ्चित् गुणपर्यायकी अपेक्षा अनेकरूप, कथञ्चित् संज्ञा संख्या लक्षणकी अपेक्षा गुणपर्यायादि अनेक भेदरूप, कथञ्चित् सत्त्वकी अपेक्षा अभेदरूप, कथञ्चित् द्रव्यकी अपेक्षा नित्य, और कथञ्चित् पर्यायकी अपेक्षा से अनित्य होता है। इस प्रकार स्याद्वादसे सर्व विरोध दूर हो जाते हैं; इसलिये उसे “सकलनयविलसितानां विरोधमथनं" यह विशेषण दिया है । लोकत्रयकनेत्रं निरूप्य परमागर्म प्रयत्नेन । अस्माभिरुपोध्रियते विदुषां पुरुषार्थसिद्धघु पायोऽयं ॥ ३ ॥ अन्वयाथों-[ लोकत्रयकनेत्रं ] तीन लोक सम्बन्धी पदार्थोंको प्रकाशित करने में अद्वितीय नेत्र [परमागमं ] उत्कृष्ट जैनागमको [ प्रयत्नेन ] अनेक प्रकारके उपायोंसे [ निरूप्य ] जानकर अर्थात् १-बीजं पाठ भी है । २-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा । ३-स्याद्-कथञ्चित्नयअपेक्षासे+वादवस्तुका स्वभाव कथन ।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy