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________________ भीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [५-चार प्रकार के बंधका स्वरूप अन्वयाथौं- [प्रात्मविनिश्चतिः ] अपनी प्रात्माका विनिश्चिय [ दर्शनम् ] सम्यग्दर्शन, [प्रात्मपरिज्ञानम्] आत्माका विशेष ज्ञान [बोधः] सम्यग्ज्ञान, और [प्रात्मनि] आत्मामें [स्थितिः] स्थिरता [चारित्रं] सम्यक्चारित्र [इष्यते] कहा गया है, तो फिर [ एतेभ्यः 'त्रिभ्यः' ] इन तीनोंसे [ कुतः ] कैसे [ बन्धः ] बंध [ भवति ] होता है। भावार्थ-चेतनालक्षणयुक्त अनन्तगुणात्मक प्रात्माका, स्वतत्त्वविनिश्चियरूप चेतनापरिणाम सम्यग्दर्शन है, विनिश्चत पात्मा परिचयरूप चेतनापरिणाम सम्यग्ज्ञान है और उक्त परिचित आत्मामें निराकुल स्थिरतारूप चेतनापरिणाम सम्यकचारित्र्य है । इस प्रकार अभेदरत्नत्रयी प्रात्मस्वभावसे बंध होनेकी संभावना कैसे की जा सकनी है ? नहीं की जाती। क्योंकि भिन्न वस्तुसे बंध होता है, अभेदरूपसे नहीं। सम्यक्त्वचरित्राभ्यां तीर्थकराहारकर्मणो बन्धः । योऽप्युपदिष्टः समये न नयविदा सोऽपि दोषाय ॥ २१७ ।। अन्वयाथों-- [अपि ] और [तीर्थकराहारकर्मणो] तीर्थंकर प्रकृति और आहार प्रकृतिका [ यः ] जो [ बन्धः ] बन्ध [सम्यक्त्वचरित्राभ्यां ] सम्यक्त्व और चारित्रसे [ समये ] प्रागममें [उपदिष्टः ] कहा है. [ सः ] वह [ अपि ] भी [ नयविदां ] नयवेत्ताओंको [ दोषाय ] दोषके लिये [ न ] नहीं है। भावार्थ-तीर्थंकर प्रकृतिका बंध चतुर्थ गुणस्थानसे आठवें गुणस्थानके छ8 भागतक तीनों सम्यक्त्वोंसे होता है और आहारप्रकृतिका बंध चारित्रसे होता है, यद्यपि ऐसा श्रुतकेवलीप्रणीत शास्त्रोंमें नियम है, तो भी नयविभागके ज्ञाता इस कथनको अविरुद्ध समझते हैं। क्योंकि अभूतार्थनयकी अपेक्षा वो सम्यक्त्व और चारित्र बंधके करने वाले होते हैं, परन्तु भूतार्थनयकी अपेक्षा सम्यक्त्वचारित्र बंधके कर्ता नहीं होते। बंधके कर्ता पूर्वोक्त योग कषाय ही हैं। और भी: सम्यक्त्व दो प्रकारका है एक सरागसम्यक्त्व और दूसरा वीतरागसम्यक्त्व । सरागसम्यक्त्व किचित् रागभावयुक्त और वीतरागसम्यक्त्व रागभावसे विमुक्त है, सुतरां तीर्थ कर व आहारकप्रकृतिका बध सरागसम्यक्त्व में राग भावके मेलसे होता है, वीतराग सम्यक्त्वमें नहीं। सति सम्यक्त्वचरित्रे तीर्थकराहारबन्धको भवतः । योगकषायो नासति तत्पुनरस्मिन्नुदासीनम् ॥ २१८ ।। अन्वयाथों-[ यस्मिन् ] जिसमें [ सम्यक्त्वचरित्रे सति ] सम्यक्त्व और चारित्रके होते हुए [ तीर्थकराहारबन्धको ] तीर्थकर और पाहारकप्रकृति के बंध करनेवाले [ योगकषायौ ] योग और कषाय [ भवतः ] होते है, [ पुनः ] और [ असति, न ] नहीं होते हुए नहीं होते हैं, अर्थात् सम्यक्त्व चारित्रके विना बंधके कर्ता योग कषाय नहीं होते [ तत् ] वह सम्यक्त्व और चारित्र [ अस्मिन् ] इस बधमें [ उदासीनम् ] उदासीन है।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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