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________________ श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [५-बाईस परीषह १२-तृषापरोषहजय-प्यासकी असह्य वेदना होनेपर उसके वशीभूत होकर जल-पानादि न करके दुःख सह लेने को कहते हैं । उष्णताकी पुज ग्रीष्मऋतुमें पहाड़के शिखरपर आरूढ़ मुनिको उपवासोंकी तीव्र उष्णतासे जिस समय तृषावेदना होती है, उस समय वे विचारते हैं:-हे जीव ! तूने संसारमें अनेक बार जन्म धारण करके अनेक बार अनेक गतिमें अतिशय दुःसह तृषा वेदनाका सहन किया है, फिर इस थोडीसी वेदनासे कायर क्यों होता है ? मुनिकी स्वतंत्र सिंहवृत्तिका आचरण करके कायर होना लज्जाकी बात है । जगतपुज्य इस मुनि अवस्थामें दुर्लभ ज्ञान-पोयूषका पान कर । ३-शीतपरीषहजय-शीतका कष्ट सहन करनेको कहते हैं। जिसमें हवाके एक झोंकेसे जगतके जीवोंकी शरीरयष्टि थर-थर कांपने लगती है, सरोवरोंके जल जिसके डरसे पत्थर (बर्फ) हो जाते हैं । हरित वृक्षोंके समूह तथा कमल-वन जिस समय तुषारसे जल जाते हैं। तेल, अग्नि, ताम्बूलादि उष्ण पदार्थों का सेवन करते हुए भी मनुष्य घरमेंसे बाहिर नहीं हो सकते, ऐसी हेमन्तऋतुमें सरित सरोवरादि जलाशयोंके किनारे कायोत्सर्ग अथवा पद्मासनस्थित मुनिवरोंको जव शीत सताता है, तब वे विचार करते हैं:-हे जीव ! तूने छ8 सातवें नरक प्रदेशकी उस महाशीत वेदनाको सहन किया है, जिसकी तुलना करनेसे यह उपस्थित वेदना सुमेरुके सम्मुख एक अणुके तुल्य है। यदि तू इस महा मुनिवृत्तिको धारणकर इसे जीत लेगा, तो सदा के लिये इससे छटकारा हो जावेगा। नहीं तो फिर इससे भी दुस्सह शीत अनन्त संसारमें अनन्त बार सहना पड़ेगा। ४-उष्णपरीषहजय-उष्णताका संताप सहने को कहते हैं। जिसमें समस्त संसार तप्त तवेके समान हो जाता है, यावन्मात्र जीव व्याकुल हो जाते हैं जगलके महाहिंसक पशु सिंह और हरिण न्याकुलताके कारण वैरभावको छोड़कर एक स्थानमें पड़े रहते हैं, जलाशयोंके जल सूख जाते हैं, गर्म लूकोंके (लूये) चलनेसे वृक्ष कुम्हला जाते हैं, ऐसे प्रचण्ड ग्रीष्मकाल में मुनिजन पर्वतोंकी उच्च शिखरों की शिलानोंपर स्थित होते हैं और ज्ञानामृतकी शीतलतासे उष्ण वेदनाका शमन करते रहते हैं। ५-नग्नपरीषहजय-रेशम, ऊन, सूत, घास, वृक्ष, चर्मादिकके किसी प्रकारके वस्त्र न रखकर दशों दिशाओंके वस्त्र धारणकर भयंकर वन में एकाकी नग्न रहनेको पौर कायसम्बन्धी विकारोंके न होने देनेको कहते हैं। ६-याचनापरीषहजय-किसीसे किसी भी प्रकारकी याचना न करनेको कहते हैं। याचनासे समस्त संसारी जीव दीन हो रहे हैं । महावैभव तथा ऋद्धिसम्पन्न इन्द्र भी अभिलाषावश रंक हो रहे हैं, परन्तु मुनि अयाचीक व्रतके धारण करनेवाले हैं। वे किसीसे भोजन धर्मापकरणादि वस्त्र तो क्या तीर्थंकरदेवसे मोक्ष भी नहीं मांगते । इसीसे वे सर्वोत्कृष्ट हैं। ७-अरतिपरीषहजय-संसारके समस्त इष्ट अनिष्ट पदार्थों में संसारी जीव राग द्वेष मानते हैं । ऐसा न करके मन्दिर और वन, शत्रु और मित्र, कनक और पाषाण, सबमें समता भाव धारण करने को तथा रति अरति रूप परिणाम न करनेको अरतिपरीषहजय कहते हैं । ८-अलाभपरीषहजय- अनेक उपवासोंके अनन्तर नगरमें भोजनार्थ जानेपर निर्दोष माहारादि न मिलनेसे खेदित न होनेको कहते हैं ।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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